व्यास पूर्णिमा-विक्रम सम्वत् 2080

Shree Ram Sharnam Gwalior

श्री राम शरणम्

राम सेवक संघ, ग्वालियर

‘मैं अजर, अमर, सत्य, नित्य, शुद्ध, प्रबुद्ध, चैतन्य, आनंदमय, शक्तिशाली आत्मा हूँ !’

[ बार-बार दोहराते रहिये ]
[पूज्य श्री डॉ. विश्वामित्र जी महाराज के मुखारविन्द से ]

नाम-दीक्षित साधकों के लिए

आध्यात्मिक क्षेत्र में नाम-दीक्षा एक सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में अनुभवी, जाग्रत गुरु द्वारा साधक के अन्तःकरण में आध्यात्मिक शक्ति का संचार कराया जाता है। संत परंपरा के अनुसार हमारे सत्संग में नाम-दीक्षा देना व लेना अर्थात् गुरु मंत्र को धारण करना एक रहस्यवाद है। यह क्रिया दिखाई नहीं देती है, लेकिन ऐसा होता है। इसलिए यह रहस्यवाद है। इस विधि में राम-नाम एक जाग्रत, चैतन्य, तारक, मंत्र होता है, जो साधक के अन्तःकरण में (घट-मंदिर में) अनुभवी, जाग्रत गुरु, संत अथवा आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न सज्जन द्वारा अपनी संकल्प शक्ति से विधिपूर्वक स्थापित किया जाता है। इसके साथ ही साधक को ध्यान व जाप करने की उपासना विधि समझायी जाती है। जैसे मंदिर में मूर्ति की स्थापना कर फिर प्राण-प्रतिष्ठा मंत्रोच्यार से किया जाता है। तभी वह मूर्ति पूज्यनीय होती है। जैसे- भूमि में बीजारोपण किया जाता है, फिर उसे पानी, मिट्टी व अनुकूल मौसम से सींचा जाता है, तब बीज प्रस्फुटित, अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होता है। इसी प्रकार नियमपूर्वक साधना करते रहने पर मंत्र योग का विकास होता जाता है।

ध्यान

दीक्षा ग्रहण करते समय साधक अध्यात्म में प्रवेश करता है और दीक्षा-व्रत धारण करता है तथा दीक्षा-गुरु को वचन देता है कि मैं इस उपासना विधि को करता रहूँगा, छोडूंगा नहीं । दीक्षा ग्रहण करने के कुछ काल पश्चात् साधक से पूछा जाता है क्या आप इसका नित्य पालन कर रहे हैं ? अधिकांश साधक ‘ध्यान’ नित्य नहीं कर पाते हैं। देखिये, आपने ध्यान करते रहने का दीक्षा-व्रत लिया है और गुरु को वचन भी दिया है, अतः आपको ध्यान नित्य प्रातः एवं सांय करना चाहिए।

प्रत्येक साधक को ब्रह्म मुहूर्त में जागना चाहिए। ब्रह्म मुहूर्त सूर्योदय से पूर्व का समय प्रातः 3 बजे से 6 बजे का समय होता है। इसे अमृतबेला भी कहते हैं। उस समय में एक नियत समय व स्थान पर ध्यान में बैठना चाहिए। उस समय प्रकृति में सत्त्व गुण की प्रधानता होती है। ब्रह्म मुहूर्त में पत्ते-पत्ते से प्राणवायु बहती है। चारों ओर शांत वातावरण

रहता है। विश्व के सभी संत-महात्मा ध्यान में बैठा करते हैं। हमारे गुरुजन भी इसी समय ध्यान में बैठते हैं। उपासक को इन सबकी सात्त्विक तरंगों का लाभ मिलता है।

इस समय में परम-धाम से मुक्त आत्माएँ भ्रमण करती हैं। ध्यान में बैठा हुआ उपासक उनका आशीर्वाद प्राप्त करता है।

ब्रह्म मुहूर्त में ध्यान – जाप – उपासना नियत समय पर करने का विशेष महत्व एवं प्रभाव है। इस समय में जो भी स्वास्थ्य संबंधी, व्यवसाय संबंधी, अध्ययन संबंधी कार्य करने पर भरपूर विशेष लाभ मिलता है।

इसी प्रकार संध्या काल में नियत समय पर ध्यान में बैठने पर विशेष लाभ मिलता है। संध्या काल सूर्यास्त के पूर्व 6 से 7 बजे का समय कहलाता है। अतः ध्यान प्रातः एवं सांय नियत समय पर नित्य होना चाहिए। नित्य ध्यान करने से एकाग्रता बढ़ती जाती है। मन की चंचलता कम-कम होती जाती है। मन निर्मल होता जाता है। चित्त-शुद्धि होती जाती है। उपासक में समता भाव बढ़ता जाता है एवं मनोवृत्तियों में सुधार होता जाता है। विवेक जागृत होता है तथा आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है जो कुछ भी मिलेगा, ध्यान में ही मिलेगा। जब आपका गहरा ध्यान होता जायेगा तब उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी। ध्यान की विधि- दीक्षा के समय जिस विधि से ध्यान कराया गया था, उसी विधि से ही ध्यान करना चाहिए। ध्यान में बैठते समय सर्वप्रथम नमस्कार सप्तक गाकर परमात्मा को झुककर

प्रणाम करना चाहिए। तत्पश्चात् सीधे होकर सुखासन में बैठ जायें। आँखें बंद कर मन ही मन राम-राम जपते रहे। जीभ, ओठ न हिले, और आवाज न आये। अपना ध्यान दोनों भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र पर केन्द्रित करना चाहिए और आज्ञा चक्र को देखते रहना चाहिए। इस प्रकार ध्यान करते रहें। सामान्यतः ध्यान प्रातःसांय 30 मिनट किया जाता है। लेकिन आप अभ्यास काल में 15 मिनट भी बैठ सकते हैं। यह समय तीन-चार महीने पश्चात् 1-1 मिनट नित्य बढ़ाते जायेंगे और कुछ माह पश्चात् तीस मिनिट तक ध्यान का अभ्यास हो जायेगा।

ध्यान में सर्वप्रथम आज्ञा चक्र पर मन को एकाग्र करें, कुछ ही सेकेण्ड में आपका ध्यान वहाँ से हट जायेगा और विचार आने लगेंगे, लेकिन आप मन ही मन राम-राम जपते रहें। पुनः मन को आज्ञा चक्र पर टिकावें, फिर हट • जायेगा, तब पुनः पुनः मन को वहीं आज्ञा चक्र पर लगायें। इसको बाधा न माने, घबराये नहीं, आप तो राम राम जपते रहें। अभ्यास काल में ऐसा ही होता रहेगा। नित्य नियत समय पर ध्यान करते रहने से आगे जाकर ध्यान आज्ञा चक्र पर लगने लगेगा और एकाग्रता बढ़ती जायेगी। ध्यान में राम नाम जपते रहने से विद्युत शक्ति पैदा होती है, ऊर्जा बढ़ती जाती है। यह शक्ति एकाग्रता बढ़ाने में, दोष दुर्गुण दूर करने में सहायक होती है। हमारे विचार Positive (सकारात्मक) होते जाते हैं। अभ्यास काल में ध्यान 3 श्रेणी में बाँट सकते हैं-

(1) ध्यान करने की यह सर्वोत्तम व प्रथम श्रेणी है। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में और संध्या समय में नियत समय व स्थान पर ध्यान करने बैठें।

(2) द्वितीय श्रेणी में साधक अपनी सुविधानुसार समय निश्चित कर नित्य प्रातः व साय नियत समय व स्थान पर ध्यान करने बैठें।

(3) तृतीय श्रेणी के साधक अपनी सुविधानुसार किसी भी समय प्रातः एवं साँय सोने से पूर्व ध्यान कर लें, लेकिन नित्य करें। कुछ माह पश्चात् जब आपको ध्यान में आनंद आने लगे, मन स्थिर होने लगे तब आप तृतीय श्रेणी से द्वितीय श्रेणी के अनुसार व द्वितीय श्रेणी के उपासक प्रथम श्रेणी के अनुसार ध्यान करने लगें। इसकी जानकारी के लिए ‘भक्ति प्रकाश’ या ‘प्रवचन पीयूष’ से ध्यान संबंधी ज्ञान प्राप्त कर लें। पूज्यपाद स्वामी जी का कथन है सियानी स्त्रियों बाबूजी के दफ्तर जाने के बाद का समय ध्यान का बना लेती हैं।

अधिकांश साधकों का कथन है कि हमारा ध्यान में मन नहीं लगता, हम माला से जाप कर लेते हैं। उनके लिए पूज्यश्री प्रेम जी महाराज का कथन है- जब आप कमरे में झाडू लगाते हैं तो धूल उड़ती है, लेकिन आप झाडू लगाना बंद नहीं करते, पूरा कक्ष झाड़ देते हैं। कुछ समय पश्चात् धूल शांत हो जाती है, और कमरा साफ हो जाता है। ऐसे ही नित्य ध्यान करने से आपका अन्तःकरण स्वच्छ हो जायेगा। मन ध्यान में लगने लगेगा और एकाग्रता बढ़ती जायेगी। अतः  बढ़ता जाता है एवं मनोवृत्तियों में सुधार होता जाता है। विवेक जागृत होता है तथा आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। जो कुछ भी मिलेगा, ध्यान में ही मिलेगा। जब आपका गहरा ध्यान होता जायेगा तब उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी। ध्यान की विधि- दीक्षा के समय जिस विधि से ध्यान कराया गया था, उसी विधि से ही ध्यान करना चाहिए। ध्यान में बैठते समय सर्वप्रथम नमस्कार सप्तक गाकर परमात्मा को झुककर प्रणाम करना चाहिए। तत्पश्चात् सीधे होकर सुखासन में बैठ जायें। आँखें बंद कर मन ही मन राम-राम जपते रहें। जीभ, ओंठ न हिले, और आवाज न आये अपना ध्यान दोनों भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र पर केन्द्रित करना चाहिए और आज्ञा चक्र को देखते रहना चाहिए। इस प्रकार ध्यान करते रहें। सामान्यतः ध्यान प्रातःसांय 30 मिनट किया जाता है। लेकिन आप अभ्यास काल में 15 मिनट भी बैठ सकते हैं। यह समय तीन-चार महीने पश्चात् 1-1 मिनट नित्य बढ़ाते जायेंगे और कुछ माह पश्चात् तीस मिनिट तक ध्यान का अभ्यास हो जायेगा।

ध्यान में सर्वप्रथम आज्ञा चक्र पर मन को एकाग्र करें, कुछ ही सेकेण्ड में आपका ध्यान वहाँ से हट जायेगा और विचार आने लगेंगे, लेकिन आप मन ही मन राम राम जपते रहें। पुनः मन को आज्ञा चक्र पर टिकावें, फिर हट जायेगा, तब पुनः पुनः मन को वहीं आज्ञा चक्र पर लगायें इसको बाधा न माने, घबराये नहीं, आप तो राम राम जपते रहें। अभ्यास काल में ऐसा ही होता रहेगा। नित्य नियत समय पर ध्यान करते रहने से आगे जाकर ध्यान आज्ञा चक्र पर लगने लगेगा और एकाग्रता बढ़ती जायेगी। ध्यान में राम-नाम जपते रहने से विद्युत शक्ति पैदा होती है, ऊर्जा बढ़ती जाती है। यह शक्ति एकाग्रता बढ़ाने में दोष दुर्गुण दूर करने में सहायक होती है हमारे विचार Positive (सकारात्मक) होते जाते हैं।

अभ्यास काल में ध्यान 3 श्रेणी में बाँट सकते हैं-

(1) ध्यान करने की यह सर्वोत्तम व प्रथम श्रेणी है। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में और संध्या समय में नियत समय व स्थान पर ध्यान करने बैठें।

(2) द्वितीय श्रेणी में साधक अपनी सुविधानुसार समय निश्चित कर नित्य प्रातः व सांय नियत समय व स्थान पर ध्यान करने बैठें।

(3) तृतीय श्रेणी के साधक अपनी सुविधानुसार किसी भी समय प्रातः एवं सांय सोने से पूर्व ध्यान कर लें, लेकिन नित्य करें। कुछ माह पश्चात् जब आपको ध्यान में आनंद आने लगे, मन स्थिर होने लगे तब आप तृतीय श्रेणी से द्वितीय श्रेणी के अनुसार व द्वितीय श्रेणी के उपासक प्रथम श्रेणी के अनुसार ध्यान करने लगे।

इसकी जानकारी के लिए ‘भक्ति प्रकाश’ या ‘प्रवचन पीयूष से ध्यान संबंधी ज्ञान प्राप्त कर लें। पूज्यपाद स्वामी जी का कथन है सियानी स्त्रियाँ बाबूजी के दफ्तर जाने के बाद का समय ध्यान का बना लेती हैं।

अधिकांश साधकों का कथन है कि हमारा ध्यान में मन नहीं लगता, हम माला से जाप कर लेते हैं। उनके लिए पूज्यश्री प्रेम जी महाराज का कथन है- जब आप कमरे में झाडू लगाते हैं तो धूल उड़ती हैं, लेकिन आप झाडू लगाना बंद नहीं करते, पूरा कक्ष झाड़ देते हैं। कुछ समय पश्चात् धूल शांत हो जाती है, और कमरा साफ हो जाता है। ऐसे ही नित्य ध्यान करने से आपका अन्तःकरण स्वच्छ हो जायेगा। मन ध्यान में लगने लगेगा और एकाग्रता बढ़ती जायेगी। अतः
उपासक को नित्य ध्यान करना चाहिए, छोड़े नहीं, क्योंकि आपने अपने ध्यान करने का वचन दिया है तथा दीक्षा-व्रत लिया है। गुरु को नित्य

पूज्य श्री स्वामी जी महाराज का दीक्षा देते समय का कथन है- जैसे- मंदिर में जाते समय सबसे पहले मूर्ति के दर्शन करते हैं फिर मंदिर देखते हैं। इसी प्रकार सर्वप्रथम ध्यान में आज्ञा-चक्र को देखें, बाद में वृत्ति बिखर जाए तो कोई बात नहीं। पुनः ध्यान को आज्ञा चक्र पर केन्द्रित करें तथा राम-राम जपते रहें।

जाप 

इसी प्रकार नित्य माला से जाप करना चाहिए। नित्य जाप की संख्या कम से कम 10,000 होनी चाहिए। इसके लिए प्रारंभ में 2000 संख्या नियत कर लें। फिर राम-नाम की एक-एक माला प्रत्येक सप्ताह बढ़ाते जायेंगे तो आप धीरे-धीरे 10,000 राम नाम जाप तक पहुँच जाएँगे। इससे अधिक संख्या अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं। जाप आप चलते-फिरते, उठते- बैठते, सोते-जागते, आँखें खोलकर या बंद कर कर सकते हैं। जाप मन ही मन अथवा बोलकर (बैखरी वाणी) से भी कर सकते हैं।

स्वाध्याय

पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज के ग्रंथों से नित्य कम से कम 10 मिनट का स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय से आपको साधना करने सम्बन्धी समझ पैदा होगी और आपका ज्ञानवर्धन होगा। आपकी स्वाध्याय में रूचि बढ़ती जाएगी। इसके लिए भक्ति प्रकाश तो स्वामी जी महाराज का मुख्य ग्रंथ है ही लेकिन सर्वप्रथम आवश्यक रूप से प्रवचन पीयूष का थोड़ा-थोड़ा स्वाध्याय प्रारंभ करें। प्रवचन पीयूष पढ़ने तथा समझने में सरल है। इसका अध्ययन करने से साधना सम्बन्धी अधिकांश जानकारी प्राप्त होगी। स्वाध्याय से अपने इष्ट देव का परम मिलाप होता है।

आसन

हम ध्यान में सुखासन में बैठते हैं। अभ्यास न होने के कारण 5- 10 मिनट बाद ही बैठने में कठिनाई होने लगती है। इसके लिए यदि हम प्रत्येक सप्ताह में समय को एक-एक मिनट बढ़ाते जाएंगे तो 30 मिनट तक का अभ्यास हो जाएगा। आसन सिद्ध • जाएगा। आसन सिद्ध होने पर 1 घंटा / 2 घंटे आराम से बैठ सकते हैं। आसन सिद्ध होने से ध्यान में और अधिक आनन्द आएगा।

ध्यान, जाप एवं स्वाध्याय हमारी साधना के मुख्य अंग हैं। हमारे यहाँ साधना-सत्संगों में पूज्य श्री स्वामी जी महाराज इन सबकी (ध्यान, जाप तथा स्वाध्याय) विशेष साधना प्रेक्टिकल रूप में करवाते हैं। जिससे साधक की आध्यात्मिक भूमि दृढ़ होती है, इसलिए हम सबको चाहिए कि कम से कम एक बार साधना-सत्संग में अवश्य ही भाग लेवें।