जीवनचर्या में भक्ति का महात्म्य
10th Aug 2023जीवनचर्या में भक्ति का महात्म्य
[पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज ]
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भक्ति का शाब्दिक अर्थ है- प्रेमपूर्वक सेवा
भक्ति का शाब्दिक अर्थ है- प्रेमपूर्वक सेवा, जिसकी की जाये, व्यक्ति उसी का भक्त कहलाता है जैसे- पितृ भक्त, मातृ भक्त, देश भक्त, स्त्री- पितृ-भक्त, मातृ-भक्त, भक्त इत्यादि । यहाँ भगवद्भक्ति की चर्चा है। मानव जीवन का एक मात्र लक्ष्य है ईश्वर- प्राप्ति । नौ माह की कैद काटकर पुनः कैद न होना पड़े, इस हेतु सुगमतम साधन है भक्ति । सर्वात्मा के साक्षात्कार का भक्ति समान सुखप्रद मार्ग अन्य कोई नहीं ।
भगवान श्रीकृष्ण फरमाते हैं, ‘भक्त शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों व बुद्धि से जो भी कार्य करे, वह प्रभु के लिए हो इस भाव से समर्पण कर दे, यह सरल भक्ति है। जो भक्ति – युक्त मेरे चिन्तन में मग्न रहता है, उसके लिए ज्ञान-वैराग्य की / आवश्यकता नहीं । निरन्तर भजन करने से, अखण्ड स्मरण से, मैं उनके हृदय में आसीन, प्रकट होते ही सारी वासनाएं, अपने संस्कारों सहित नष्ट हो जाती हैं ।’ भक्ति स्वभावतः इतनी सरल कि कल्पना नहीं की जा सकती । स्पष्ट उद्घोष है इसके प्रभु-प्राप्ति की इच्छा के अतिरिक्त इच्छाएँ भौतिक कामनाएँ हैं । जो अनश्वर सुख दे वह – राम, इनके सिवा नश्वर सुख देने वाले सब – विषय | नारद भक्ति-सूत्र में कहा गया है- भक्ति का रूप – है परम- प्रेम और स्वरूप है अमृत । चन्दन, पुष्प आदि अर्पण करना तो भक्ति की प्रक्रिया मात्र है, सच्ची भक्ति तब, जब सबके प्रति भक्ति भाव जगता है। भक्ति तब, जब भक्ति और व्यवहार में अन्तर न रहे । घर में, परिवार में अपनों के लिए काम करना व्यवहार, परमात्मा के लिए किया जाए तो भक्ति । लौकिक कार्य करके जो समय मिले, उसमें की गई भक्ति ऐसी भक्ति मर्यादा-भक्ति कहलाती है। इसमें – व्यवहार और भक्ति में अन्तर, दोनों अलग।
पुष्टि-भक्ति में अलग नहीं – अर्थात् व्यवहार और भक्ति एक समान । ऐसी भक्ति सर्वदेश, सर्वकाल की जा सकती है। वास्तव में भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यही कि यह चौबीस घंटों की जा सकती है । जिस भक्ति में भगवान से भक्ति के अतिरिक्त कुछ और मांगा जाये, वह है गौणी- सकाम भक्ति । जिसमें कोई भौतिक मांग नहीं, उसे निष्काम-भक्ति कहा जाता है। जिसमें विधि-विधान की प्रमुखता, उसे वैधी भक्ति कहा जाता है, किन्तु जिसमें प्रीति प्रमुख और विधि गौण है, उसे रागानुराग भक्ति कहा जाता है ।
भक्ति की पराकाष्ठा है शरणागति अर्थात् सम्पूर्ण-समर्पण। इसमें भक्त की निजी इच्छा नहीं रहती, अपने जीवन – रथ की बागडोर भगवान को सौंप देता है। विधाता अब उसके जीवन का संचालन उसके कर्मों के अनुसार नहीं, परमेश्वर अपनी इच्छानुसार करता है ।
यह तो हुई शास्त्रानुसार संक्षिप्त जानकारी भक्ति के विषय में । एक सामान्य व्यक्ति अथवा भक्ति का विद्यार्थी क्या समझे भक्ति को, ताकि उसे सहज ही अपनी जीवनचर्या में उतार सके । यही भक्ति का महात्म्य है ।
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परमात्मा से जोड़े वह है- ‘भक्ति’
जो हमें परमात्मा से जोड़े वह है- भक्ति । जैसे खूंटी से बंधी जंजीर को पकड़कर स्नान करने वाला नदी के जल के बहाव में नहीं बहता, वैसे ही भक्त भक्ति-रूपी जंजीर को पकड़ने से संसार के प्रवाह में नहीं बहता । युवक जिसने स्तम्भ को जोर से पकड़ रखा हो, बाहों में जकड़ रखा हो, अनेक युवकों द्वारा कमर से पकड़ कर जोर से खींचने, छुड़वाने पर भी नहीं छूटता। ठीक उसी प्रकार संसार के प्रलोभन, माया के आकर्षण, राम भक्त को संसार में नहीं खींच सकते। जैसे मिट्टी के तेल से भीगे वस्त्र में दुर्गन्ध आती है और घी व इत्रादि द्रव्यों से भीगे वस्त्रों में से सुगन्ध आती है, वैसे ही विषयों के, संसार के चिन्तन में मन में भय, शोक, वासना , आदि की दुर्गन्ध आती है और भक्ति में डूबे भक्त के मन से निष्कामता, अनासक्ति व प्रसन्नता की भरपूर महक आती है। एक लोभी ने कमाई के लिए जुए का सहारा लिया, जीत ही जीत तो खाकपति से लखपति हो गया। परन्तु लोभ के कारण, न संतोष, न शान्ति, तृष्णा और बढ़ गयी । उठा हुआ व्यक्ति यदि प्रभु से न जुड़ा हो, तो गिरकर रहेगा- यह प्रकृति का नियम है। जुआरी ने और अधिक धन जुए में लगाना शुरू कर दिया । अब हार ही हार । पुन: वाकपति बन गया, माँगने पर विवश हो गया । सर्व सुख दाता से जुड़े बिना सुख- संतोष कैसे मिले? जब भक्त प्रभु से जुड़ गया तो दूसरों के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं रहती, सब कुछ बिन मांगे देता है- दाता – शिरोमणि ।
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‘भक्ति’ देती है निश्चिंतता
भक्ति निश्चिंतता देती है- जीवन सुरक्षित रहता है। एक सेठ की आज एक ही दिन में खूब बिक्री हुई । उस समय की घटना है जब डेढ़-दो बजे बैंक लेन-देन बंद कर देते थे । इतना पैसा नकदी, पास रखना ठीक नहीं, समय भी हो चुका है, जल्दी से कर्मचारी को कार में भेजा तत्काल डेढ़ करोड़ बैंक में जमा करवा आओ। बैंक अधिकारी ने पैसे जमा करके, मोहर लगा के हस्ताक्षर करके एक पर्ची कर्मचारी के हाथ थमा दी। सेठ जी ने पर्ची फाइल में रख दी। कुछ ही समय बाद समाचार मिला। बैंक में डाका पड़ गया, डाकू नौ करोड़ रुपये लूटकर ले गये । सेठ ने देखा, पर्ची सुरक्षित व सही है और पूर्णतया निश्चिंत हो गये, कहा, ‘गया तो बैंक का गया, चिन्ता बैंक को, हमारे पास तो पर्ची है।’ संत फरमाते हैं, ‘जीवनचर्या पर भक्ति की मोहर लगवाकर जीवनरूपी पर्ची को सुरक्षित रखो और निश्चिंत रहो ।’
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आत्मा का भोजन है- ‘भक्ति’
भक्ति तो आत्मा का भोजन है- एक वकील ने गांधी जी से कहा, ‘जितना समय रोज उपासना – प्रार्थना में लगाते हो, उतना देश सेवा में लगाओ, तो देश को 1 कितना अधिक लाभ हो।’ गांधी जी ने पूछा, ‘वकील महोदय ! भोजन करने में कितना समय लगाते हो!’, ‘जल्दी-जल्दी भी करूं, तो भी 50-60 मिनट लग जाते हैं।’ मित्र! बहुत समय बरबाद करते हो, यह समय मुकदमों की तैयारी में लगाओ, तो कितने और निपट जायें।’ ‘गांधी जी! पर बिना भोजन मुकदमों की तैयारी कैसे ?’ गांधी जी मुस्कुरा कर बोले, ‘जिस प्रकार बिन भोजन आप मुकदमों की तैयारी नहीं कर सकते, बिन भक्ति मैं देश सेवा नहीं कर सकता । वह भोजन शरीर के लिए है, तो भक्ति आत्मा का भोजन है- इससे आत्मा को शक्ति व प्रेरणा मिलती है। शरीर के लिए आहार आवश्यक तो आत्मा के लिए भक्ति का आहार भी आवश्यक, इसे भूखा न रखो।’
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बिन भक्ति जीवन अधूरा
प्रेम भक्ति है धर्म का सार मर्म सुविचार |
फीका है इसके बिना, वाक्य जाल विस्तार ।।
भक्ति-हीन जो धर्म है, है बालू का कोट ।
नकली मोती लाल है, लगे खरे सा खोट ||
(भक्ति प्रकाश)
भक्ति का शुभारम्भ भगवन्नाम-आराधन से होता है। जिस प्रकार भोजन से तुष्टि, पुष्टि और क्षुधा शान्त होती है, उसी प्रकार नाम-स्मरण से भक्ति, वैराग्य और ज्ञान स्वतः उपलब्ध हो जाते हैं। संसार के प्रति तथा विषयों के प्रति आसक्ति, प्रभु से आसक्ति जोड़े बिना – अर्थात् बिना भक्ति निवृति नहीं हो सकती ।
जैसे जब पति से राग हो जाता है तो माँ-बाप से, मायके से कम हो जाता है। अनुराग राम से करो, तो संसार से राग छूटता-घटता है – इसे वैराग्य कहते हैं ।
जिससे प्रेम, जिसकी भक्ति, उसके बारे में जानकारी होनी जरूरी | जैसे एक व्यक्ति अपने मित्र को, घर में भोजन के लिए ले गया। उसके सामने हलवा, पूरी, खीर, मालपुआ सब रख दिये । उसका मित्र से प्रेम तो बहुत है, पर जानकारी नहीं कि मधुमेह का रोगी है, हृदय रोग से भी ग्रस्त, उसे मीठा-तला खाने की इजाजत नहीं । इसका अर्थ है- प्रेम अधूरा है। प्रियतम के बारे में जानकारी अनिवार्य – क्या अनुकूल है, क्या रुचिकर, क्या हितकर ? इसे ज्ञान कहते हैं। प्रभु से प्रेम करने से, उनकी भक्ति से वैराग्य व ज्ञान दोनों स्वतः प्राप्त हो जाते हैं । अतः समन्वय भक्ति में, ज्ञान कर्म का मान । इससे ऋषि मुनि संत सब, करते भक्ति विधान | (भक्ति प्रकाश)
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जीवन में पूर्णत्व भक्ति से
एक महिला ने मार्केट से भोजन बनाने की विधियाँ सिखाने वाली पुस्तक (recipe book) खरीदी। गाजर का हलवा कैसे बनता है ? पूरा विवरण पढ़ा। लिखे अनुसार गाजर को छीला, कद्दूकस किया, चूल्हे पर कढ़ाई में कसी गाजर, दूध और चीनी मिलाकर, कलछी से हिला रही है। ये सब वह करती रही, पर हलवा तैयार न हुआ – बेचारी परेशान है। संत अतिथि जिनके लिए हलवा बनाया जा रहा था, वह पधारे-पूछा, ‘देवि ! क्यों घबराई हुई हैं?’ कहा, `महाराज! जैसे पुस्तक में लिखा, वैसा ही सब कुछ किया, पर हलवा तैयार नहीं हुआ।’ ‘बेटी ! आपने आग तो जलाई नहीं – हलवा कैसे बनेगा, गाजर, दूध, चीनी कैसे पकेंगे ?’ अर्थ है जानकारी भी हो- ज्ञान, कलछी भी चले अर्थात् कर्म भी हो, पर भक्ति-रूपी आंच न हो, तो हलवा कैसे तैयार होगा ? अतः जीवन में पूर्णत्व भक्ति से ।
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जिसके जीवन में आगमन से समस्याओं का समाधान हो जाये, पूर्णता प्राप्त हो, वही है- भक्ति
राजस्थान के एक सरपंच मरते समय वसीयत लिख गये- मेरे 19 ऊंट हैं- आधे पुत्र को, चौथाई पत्नी को और पांचवां भाग मेरी वफादार नौकरानी को मिले। सारा गाँव परेशान है- साढ़े नौ, पौने पांच व पौने चार ऊंट कैसे हों ? अतः यह विभाजन संभव नहीं । एक संत पधारे, समस्या सुनी, समझी एवं प्रस्ताव रखा – यदि तीनों को उनके भाग से अधिक ऊंट मिल जायें, तो कोई आपत्ति तो नहीं ? ‘नहीं महाराज! बिल्कुल नहीं।’ तो बंटवारा आसान – एक ऊंट मेरा डाल दो। अब हो गये बीस, आधे-दस पुत्र को दे दिये, 5 पत्नी को और 4 नौकरानी को, बीसवां बचा, वह मेरा, मैं ले जाता हूँ। सभी विस्मित, पर अपार हर्षित | जिसके जीवन में आगमन से समस्याओं का समाधान हो जाये, पूर्णता प्राप्त हो, वही है भक्ति – अन्यथा जीवन अधूरा, अभावों से भरा हुआ ही होगा ।
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बिन भक्ति जीवन शून्य
संत-महात्मा तो फरमाते हैं – बिन भक्ति जीवन शून्य है । स्वामी रामकृष्ण जी से किसी ने प्रश्न पूछा, ‘ठाकुर ! आपकी दृष्टि में व्यक्ति मूल्यवान कब ? जीवन सफल, सार्थक कब?’ ‘यदि धनवान हो तो ?’ ‘नहीं – शून्य । ‘ – `विद्वान हो, तो ?’ ‘नहीं – वह भी शून्य । ” बलवान हो तो ?’ ‘नहीं – जीरो ।’ ‘पद-प्रतिष्ठावान सत्तावन हो तो ?’ “वह भी जीरो ।’ ‘ठाकुर ! यदि ये सब कुछ हो तो ‘ ‘उसमें अधिक जीरो ।’ ‘तब आप ही बतलायें, जीवन मूल्यवान कब ?’ ‘व्यक्ति मूल्यवान तब, जब वह भक्ति के माध्यम से परमात्मा से जुड़ जाये । भक्ति वह एक अंक है जो शून्य व शून्यों के साथ लगने पर उन्हें मूल्यवान बना देता है । ‘
गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं- नाम राम को अंक है, सब साधन हैं सून । अंक गएँ कछु हाथ नहिं, अंक रहें दस गून ।
जिस एक के जीवन में आने से जीवन में सम्पूर्णता आ जाती है, उसे भक्ति कहें या भगवान कहें- एक ही बात है ।
भक्ति बीच भगवान है, भक्तों बीच भगवान | भक्ति भाव में रहे हरि, यही भक्ति का ज्ञान । (भक्ति-प्रकाश)
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भक्ति भक्त को निर्भय बना देती है, अभय दान देती है- भक्ति ।
- Round table conference के लिए महात्मा गांधी और मदन मोहन मालवीय जी लंदन गये । पांच मिनट प्रतीक्षा की, जॉर्ज पंचम नहीं आये। दोनों ने कहा, ‘हमारी संध्या का समय हो गया है । ‘ मालवीय जी ने आसन बिछाया और ध्यान- पूजा करने लगे। गांधी जी- ‘रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम’ कीर्तन करने लगे। जॉर्ज आये पूछा, ‘India से जो प्रतिनिधि आये थे- कहाँ गये ?’ कर्मचारियों ने कहा, ‘सर! आपकी प्रतीक्षा की, आप समय पर नहीं पधारे, तो उन्होंने कहा- जॉर्ज को प्रसन्न करने की बजाय जिसने जॉर्ज को सम्राट बनाया, जो सम्राटों का सम्राट है राजाधिराज हैं, उन्हें प्रसन्न करना ज्यादा जरूरी, अत: वे prayer और संध्या करने चले गये ।’ कैसी निर्भयता ! भक्ति बलपूर्वक बात करने के लिए बल एवं साहस देती है ।
- सिकन्दर भारत में एक साधु से मिला। वह उसे अपने साथ ले जाना चाहता था । साधु ने मना कर दिया | अपना राजसी तेज प्रकट करते हुए सिकन्दर ने कहा, ‘यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो मैं तुम्हें मार डालूंगा।’ संत हँसे, ‘तुमने मुझे पैदा नहीं किया, तो मार कैसे सकोगे ?” ‘तलवार से सिर काट दूँगा ।’ अब जोर के हँसे, ‘ओ! तुम तो मेरे शरीर को मारने की बात कर रहे हो। मैंने सोचा- तुम मुझे मारोगे । अरे भाई ! शरीर को तो एक दिन मरना ही है, चाहे तुम्हारी तलवार से कटे, रोग से, दुर्घटना या प्राकृतिक प्रकोप से मरे, इसका मुझे कोई भय नहीं । ‘ सिकन्दर चकरा गया। ऐसी बात पहले कभी न सुनी थी, गीता का आदर्श पुरुष देखा, अहंकार नष्ट हुआ। सिकन्दर तो मृत्यु से कांपता था, क्यों ? वाता (एकाउन्ट) साफ नहीं था । संत की निर्भयता ने झुका दिया, सिकन्दर ने विनत हो वंदना की ।
- सिकन्दर एक अन्य संत से मिला, उन्हें कुछ देना चाहता था। उसने अपना परिचय सिकन्दर महान् देकर कहा, ‘जो चाहे मांग लो।’ संत चकित, ‘तुम कैसे व्यक्ति हो, अपने आप को महान् कह रहे हो, जरा विनम्रता सीखो। अरे महान् तो एक परमात्मा है।’ सिकन्दर घबराया, ‘आपकी सलाह सिर आँखों पर। क्या चाहिये ? मांगिये ।’ ‘मेरी लंगोटी फट गयी है, दूसरी मंगा दो ।’ ‘यह तो छोटी चीज है, बड़ी मांगिए ।’ ‘सिकन्दर ! छोटों से छोटी चीज ही मांगी जाती है। मुझे तुम पर दया आती है, तेरे पास बड़ी चीज क्या है ? बड़ी तो परमात्मा ही दे सकता है, जरूरत होगी तो उनसे मांग लूंगा। तुम्हारा उनसे परिचय नहीं, मेरा है ।’ रामाश्रित अर्थात् प्रभु से सदा युक्त ही इतना निर्भय हो सकता है।
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उस चैतन्य बिना शरीर दुर्गन्ध की पिटारी, हाड़-मांस का बोरा अर्थात् शव ।
एकदा अंक में और शून्यों में अनबन हो गयी । शून्य कहें, ‘तुम्हें कौन पूछता था, तुम तो केवल एक थे, तुम्हारा मूल्य तो हमारे जीरो – परिवार ने बढ़ाया । ‘ शून्य परिवार की अभिमान भरी बातें सुन, ‘एक ने कहा, ठीक है, मेरा कोई महत्व नहीं, मेरी आपको जरूरत नहीं, आप आबाद रहो, मैं अब चलता हूँ।’ सभी विद्वान, बुद्धिमान, वैज्ञानिक व सभी संसारी धनवान, बलवान, यशवान, सत्तावान तनिक सोचें उस एक के निकल जाने से – जीरो – परिवार का क्या मूल्य रहा ? शून्य । उस चैतन्य बिना शरीर दुर्गन्ध की पिटारी, हाड़-मांस का बोरा अर्थात् शव । जिसके साथ जीवन है, उसको जानो, मानो, पहचानो, खोजो और पाओ, तभी जीवन वास्तविक सम्पन्न होगा । उस परम पुरुष को अनन्य भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है (गीता 11/54 ) एवं प्राप्त किया जा सकता है (गीता 8 / 22 ) । अतएव गीताचार्य भगवान श्रीकृष्ण फरमाते हैं- हे भारत ! सर्वभाव से मन, वचन, काया से अथवा अनन्य भाव से, तू उसी परमेश्वर की तू शरण ले । उसकी कृपा से तू परम शान्ति को और सदा रहने वाले मोक्ष धाम को प्राप्त हो जायेगा। (गीता 18/62)
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दु:ख, मोह, भ्रम को दूर करने का सामर्थ्य देती है- भक्ति
जगत जननी सीता जी का जीवन ही उपदेश है- इन्हें भक्ति अर्थात् परम-शान्ति कहा जाता है। हनुमान जी इन्हीं की खोज एवं प्राप्ति के लिए देहाभिमान रूपी- सागर पार कर लंका गये थे । सिद्धा भक्ति के आशीष प्राप्त कर लौटे थे। माँ समझाती हैं- भक्ति का पाणिग्रहण करने के बाद ब्रह्म ने शरण में आये को पकड़ना सीख लिया तथा स्वयं भी पकड़ में आने वाले बन गये । संदेश देती है- जीवन की यात्रा में प्रत्येक यात्री के समक्ष श्रम, भ्रम व दुःख रूपी तीन समस्यायें आती हैं । चलने से श्रम, कौन-सा मार्ग (भ्रम) तथा लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ तो दुःख | मेरे सामने तीनों ही नहीं हैं। क्यों व कैसे ?
श्रम नहीं – जो चलेगा, वह थकेगा।
भक्ति की मान्यता कि सब कुछ करने या करवाने वाला परमात्मा । हमारी समस्या, हम अपने आपको कर्ता मानते हैं । सारी थकान कर्तापन के कारण, यह कल्पना और भी थकाती है कि हमारे ऊपर दायित्वों का भारी बोझ है। थकान चलने वाले को, जो राम जी की गोद में बैठा है, अथवा जिसको उन्होंने अपने कंधों पर उठाया है, उसे थकान कहाँ ? कितनी बड़ी देन है भक्ति की – कर्तापन का मिट जाना । यदि कुछ करवाता है तो श्रम के लिए, बोझ उठाने के लिए शक्ति भी प्रभु ही स्वयं ही देता है ।
भ्रम नहीं – मेरे आगे राम चलते हैं, अत: यह भ्रम भी नहीं ।
मानव ! यदि जीवन पथ पर कभी भ्रमित नहीं होना चाहते, तो सर्वश्रेष्ठ उपाय है- ईश्वर को आगे रखकर स्वयं पीछे-पीछे चलो। अपनी इच्छानुसार प्रभु को चलाने की चेष्टा न करें, अपितु उनकी परमेश्वर इच्छानुसार चलना सीखें | वे पथ-प्रदर्शक ! जिस दिशा में ले जायें, वही सही ।
नित्य प्रार्थना किया करें – हे राम !
अपने पथ पर आप चलाओ, पथ पतन न पाऊँ मैं ।
पावन पथ है परम प्रभु तेरा, उससे पैर हटे न मेरा । पर पंथों की पगडंडी पर, स्वप्नों में भी न जाऊँ मैं ।
तेरे पथ का पथिक मैं प्राणी, संशय वश न पाऊँ हानि । पग पग पर मन डोलूं, प्रेम प्रबल उर लाऊँ मैं ।
दुःख नहीं – जीवन – यात्रा में लक्ष्य अर्थात् प्रभु राम मेरे साथ, मेरे अंग-संग, तो लक्ष्य न प्राप्ति का दुःख भी नहीं |
अभिप्राय यह कि जिसने भक्ति का जीवन में वरण किया है, जिसकी दृष्टि सदा प्रभु पर है, जो ईश्वर के पीछे-पीछे चलता है, उसकी परमेच्छा को सहर्ष शिरोधार्य करता है, जिसने जीवन का सारा भार परमात्मा को सौंप दिया है, जिसके जीवन का संचालन स्वयं राम करें, उसके जीवन में दुःख, शोक, चिन्ता, अशान्ति, उदासी, थकान व भटकाव लेश- मात्र भी नहीं, वह तो सदा परम- शान्ति, परम-प्रेम के सागर में डूबा रहता है- सर्वत्र शान्ति व परमानन्द की प्राप्ति ।
भूतकाल के दुःख-शोक, वर्तमान काल के दुःख- मोह और भविष्य काल के दुःख-भय, तीनों को दूर करने का सामर्थ्य है- भक्ति में ।