नाम जतन
13th Jun 2023नाम जतन
विधि-पूर्वक साधना करने का प्रयास ही जतन है । यह क्रियात्मक पक्ष है, बाह्य क्रिया है । श्री स्वामी जी महाराज ने म-दीक्षा देते समय ध्यान व जाप करने की जो विधि बतायी है नाम- और उसी विधि से ध्यान कराया है, यही जतन है । ध्यान में एकाग्रता प्राप्त करने के लिए निम्न युक्तियाँ सहायक होंगी-
- ध्यान में बैठने से पूर्व आँखों पर ठण्डे पानी के छींटे मार लेना चाहिए एवं अपनी गर्दन के पिछले भाग को ठण्डे पानी से गीला कर लेना चाहिए ।
- सर्वप्रथम परमात्मा को झुककर प्रणाम करें फिर सुखासन में बैठें।
- ध्यान करने से पूर्व विधिपूर्वक पाँच प्राणायाम कर लें (भक्ति प्रकाश पृष्ठ 169-170 दोहा 9-14 देखें)
- परमेश्वर का आह्वान करने हेतु नमस्कार – सप्तक बोलकर (गाकर) ध्यान में बैठना चाहिए ।
- श्री अधिष्ठान जी के सम्मुख अल्प त्राटक करके ध्यान में बैठते हैं । यदि आवश्यक हो, मन, विचार बिखर रहे हों तो पन्द्रह मिनट बाद आँख खोलकर पुनः अल्प त्राटक कर ध्यान में बैठ सकते हैं ।
- ध्यान करते समय जीभ होठों के बीच लगाकर जप करें। (जीभ होंठ के बीच’- भक्ति- प्रकाश)
- ध्यान के प्रारंभिककाल में नवीन साधक दो मिनट के लिए बैखरी वाणी में राम, राम, राम, राम का उच्चारण कर सकते हैं। । फिर मानसिक जप करते हुए ध्यान में बैठे रहें। यह क्रिया कुछ अवधि के लिए करना होती है।
- ध्यान में नाम जपने पर ‘राम’ शब्द की धुन में मन को लगाकर, मन ही मन जप करते रहना चाहिए । (राम-नाम धुन ध्यान से – अमृतवाणी)
- ध्यान की एकाग्रता के लिये मन में श्वास-प्रश्वास के साथ राम- राम जपते रहें । (सांस-सांस से सिमर सुजान – अमृतवाणी)
- ध्यान का अभ्यास करते समय मन को निर्विचार करने एवं अन्तर्मुखी होने का प्रयास करना चाहिए ।
- ध्यान की समाप्ति पर अपने मुख पर एक-दो बार दोनों हाथ फेर लेना चाहिए और बैखरी वाणी में एक मिनट कोई धुन गा लेना चाहिए, जिससे ध्यान के समय हमारी चेतना सिमटती है, वो धीरे-धीरे सामान्य हो जाये और सजगता आ
- जब हम मंदिर में जाते हैं तो सर्वप्रथम मूर्ति के दर्शन करते हैं, फिर मंदिर देखते हैं । इसी प्रकार ध्यान में बैठते समय सर्वप्रथम आज्ञाचक्र को देखें तथा मन को वहीं केन्द्रित करें। फिर बाद में, मन अन्यत्र कहीं चला जाता है तो कोई बात नहीं। उसे वापस आज्ञाचक्र पर लायें । अभ्यासकाल में ऐसा करते रहना चाहिए।
- साधक प्रारंभिक अवस्था में अपने ऊपर कुछ बंधन लगाये ताकि वह भ्रमित न हो जाये । अभ्यासकाल में वह अन्य सत्संगों में सम्मिलित न हो, अन्य साधन-पद्धति को न माने भटकता न फिरे । अन्य संत-महात्माओं के विचारों को न अपनाये तथा अन्य ग्रन्थ न पढ़े। कर्मकाण्ड में न पड़े इत्यादि । अप गुरु के मार्गदर्शन में रहे। कालान्तर में परिपक्वता व दृढ़ता आने पर बंधन हटाया जा सकता है। जैसे- एक नये नन्हे विकसित पौधे की सुरक्षा के लिए उसके चहुँ ओर बाड़ लगा दी जाती है ताकि वह पशुओं व आँधी आदि से सुरक्षित रहे । जब पौधा पूर्ण विकसित व दृढ़ हो जाता है तब बाड़ हटा दी जाती है।
- ध्यान योग के अभ्यासी साधक का पेट साफ रहना चाहिए ।
- साधक मन, वचन, कर्म से अपने गुरु एवं साधन के प्रति समर्पित रहे ।
- साधक के जीवन में अनन्य भक्ति हो । एक इष्ट, एक गुरु, एक मंत्र, एक विधि एवं एक पथ पूर्वक साधना हो । स्वामी विवेकानंद जी का कथन है कि “यह जीवन तो इस पगले ब्राह्मण को दे दिया, अब आगे जब नया जन्म लेंगे तब कोई बढ़िया गुरु करेंगे।” यह है दृढ़ निष्ठा और अनन्य भक्ति ।
- ‘रहना करना नियम से, खान नियम से पान। सोना जगना नियम से, नियम बनाना बान।।’ (भक्ति – प्रकाश)
- साधक को नित्य अल्प व्यायाम भी करना चाहिए।
- साधक को नित्य 10-15 मिनट श्री स्वामी जी महाराज के ग्रंथों का भावना सहित मननपूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए ।
- स्वाध्याय से अपने साधन की जानकारी प्राप्त होती है और साधना करने में रुचि बढ़ती है।
- कोई कहता है कि हमारा ध्यान में मन नहीं लगता है और अनेक विचार आने लगते हैं अतः हम माला फेर लेते हैं ध्यान नहीं करते। लेकिन ध्यान करना अति आवश्यक है। यहाँ पूज्य श्री प्रेम जी महाराज ने हमें समझाया है- “जब हम कमरे में झाडू लगाते हैं तो धूल उड़ने लगती है, लेकिन हम झाडू लगाना बंद नहीं करते, पूरे कमरे में झाडू लगा लेते हैं। थोड़ी देर बाद धूल बैठ जाती है और कमरा स्वच्छ हो जाता ।” इसी प्रकार हमें ध्यान में नित्य नियम से बैठना चाहिए। मन नहीं लगने पर भी बैठे रहना चाहिए। कालान्तर में धीरे-धीरे विचार शांत हो जाते हैं, एकाग्रता बढ़ती जाती है और मन स्थिर हो जाता है। दीक्षा के समय ध्यान ही तो कराया जाता है और ध्यान करते रहने का वचन लिया जाता है ।
- ध्यान में अधिक प्रगति के लिए नियत समय व नियत स्थान का पालन अवश्य करना चाहिए ।
- ध्यान-सिमरन साधना नित्य निरन्तर, प्रेमपूर्वक तथा दीर्घकाल के लिए करना चाहिए ।
साधक गहन ध्यानावस्था में अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ परमात्मा की चेतना के सम्मुख होता है, तभी साधक पर राम-कृपा का अवतरण होता है । मन निर्मल होता जाता है, विवेक जाग्रत होता है। एकाग्रता का लाभ मिलता है। समता भाव आने लगता है एवं सुख, शांति व आनंद की अनुभूति होती है।
ध्यान एक वैज्ञानिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। ध्यान द्वारा ही आत्मा- परमात्मा का मिलन होता है। साधक आत्मिक-प्रसन्नता व शांति का उत्तरोत्तर लाभ प्राप्त करता है ।
श्री स्वामी जी महाराज ने हमें ध्यान व जाप करने की जो विधि बतायी है, उसके अनुसार ही विधिपूर्वक साधना करनी चाहिए। नाम निरूपण की विधि को विचारों में चिंतन करते हुए ध्यान करना चाहिए । साधना प्रेमपूर्वक व भावपूर्ण होनी चाहिए ।