पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज द्वारा *राम सेवक संघ, ग्वालियर* को दी गई अनुकरणीय शिक्षायें
14th Aug 2023पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज द्वारा राम सेवक संघ, ग्वालियर को दी गई अनुकरणीय शिक्षायें
(1)
सन् 1950 में ग्वालियर में पहला साधना – सत्संग केशरबाग में लगाया गया था । सन् 1951 तथा 1952 में दो साधना – सत्संग गुलाबचन्द के बाग में लगाये गये । सन् 1953 से 1971 तक साधना – सत्संग बिरला हाऊस में लगाये जाते रहे। तत्पश्चात् श्री माधव सत्संग आश्रम, ग्वालियर के उद्घाटन के बाद सन् 1972 से आज तक निरन्तर प्रतिवर्ष साधना – सत्संग आयोजित होते आ रहे हैं।
संत अपने आचरण द्वारा हमें छोटी-छोटी बातों की सीख दे जाते हैं। यदि कोई सीखने वाला हो, ग्रहण करने वाला हो, तो साधक द्वारा अपनाई गई वही सीख व्यवहार में लाने से सत्कर्म बन जाते हैं तथा आगे जाकर हमारे सुसंस्कार बन जाते हैं ।
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज जब ग्वालियर साधना-सत्संग के लिये ट्रेन से आते तो हम सभी स्टेशन पर उनका स्वागत करने जाते थे। ट्रेन से उतरते ही श्री स्वामी जी महाराज का सामान (लगेज) ट्रेन से बाहर प्लेटफॉर्म पर रखा जाता। सभी साधक एक-एक करके उन्हें पुष्पहार पहनाते । सामान प्लेटफार्म पर रखवाकर श्री स्वामी जी महाराज अपने सामान के नग गिनते थे। जबकि श्री स्वामी जी महाराज तो संत थे, वे कोई बेशकीमती सामान अपने पास रखते ही नहीं थे। सामान गिनकर पूज्यपाद श्री स्वामी जी अपने गले से एक-एक पुष्पहार उतारकर बारी-बारी सभी साधकों को पहना देते ।
गेट पर टी.टी. खड़ा होता तो वह, कोई संत-महात्मा आ रहे, उन्हें देखकर एक तरफ हो जाता था, बिना उनसे टिकट मांगे। पर श्री स्वामी जी महाराज अपनी करते की ऊपर की जेब से टिकट निकालते और टी.टी. को अपना टिकट देकर ही बाहर निकलते । टी.टी. यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाता क्योंकि उन दिनों संत-महात्माओं के लिये रेलयात्रा निःशुल्क थी।
‘ऐसे पक्के नियम के थे हमारे पूज्यश्री स्वामी जी महाराज!’
कार की डिक्की में जब हम लोग सामान (लगेज) रखते, तो श्री स्वामी जी महाराज कार के पीछे आकर डिक्की को खुलवाकर पुनः सामान गिनते, फिर कार में जाकर बैठते । हमने अपने पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज से यह शिक्षा ग्रहण की कि यात्रा के दौरान अपने सामान (लगेज) का स्वयं ध्यान रखना चाहिये ।
(2)
एक बार पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज को ग्वालियर साधना – सत्संग के पश्चात् हम स्टेशन छोड़ने गए तो हमारे साथ एक साधक श्रीवासुदेव शास्त्री जी भी थे। श्री स्वामी जी महाराज ट्रेन चलने तक गेट पर ही खड़े रहते थे । शास्त्री जी कपड़े की थैली हाथ में लिए हुए थे । स्वामी जी पूछते हैं- शास्त्री जी ! थैली में क्या है ? शास्त्री जी बोले- स्वामी जी महाराज ! गीता है । श्री स्वामी जी महाराज बोले- शास्त्री जी, बिल्कुल ठीक- हमेशा अपने साथ में रखना । यह सीख भी हमने पल्ले बांध ली कि कहीं यात्रा के लिए जाओ, तो गीता जी सदैव अपने साथ रखो ।
(3)
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ट्रेन में फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंन्ट में यात्रा करते थे। दिल्ली के साधकगण पूज्य श्री स्वामी जी महाराज के टिकट का प्रबंध कर देते थे तथा ग्वालियर में सूचना भिजवा देते थे कि पूज्यश्री स्वामी जी महाराज इस ट्रेन की इस बोगी से आ रहे हैं।
एक बार ग्वालियर साधना-सत्संग में पधारते हुए श्री स्वामी जी महाराज का बिस्तरबंद (बैडिंग) दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर ही छूट गया। श्री स्वामी जी महाराज ट्रेन में चढ़ गए लेकिन बिस्तरबंद वहीं छूट गया । सर्दियों के दिन थे । उस ट्रेन की फर्स्ट क्लास की बोगी में पूज्यश्री स्वामी जी महाराज के सामने वाली सीट पर एक अंग्रेज व्यक्ति सफर कर रहा था। पूज्यश्री स्वामी जी महाराज बिस्तरबंद न मिलने के कारण तनिक भी व्याकुल नहीं हुए और बड़े ही समभाव से माला फेरने लगे। इस बात को अंग्रेज यात्री ने भांप लिया और उसने श्री स्वामी जी से कहा, ‘क्या माला फेरने से आपको बिस्तरबंद मिल जाएगा ?’ श्री स्वामी जी महाराज मंद-मंद मुस्कराते हुए उसे बोले- बिस्तरबंद नहीं मिलेगा परन्तु मन को शान्ति तो मिलेगी। तभी अगले स्टेशन पर सूचना प्राप्त हुई कि पूज्यश्री स्वामी जी महाराज का बिस्तरबंद (जो दिल्ली में प्लेटफॉर्म पर छूट गया था) वह प्राप्त हो गया है और उसे अगली ट्रेन से ग्वालियर स्टेशन पर भेजा जा रहा है। अगली ट्रेन से ग्वालियर स्टेशन पर बिस्तरबंद प्राप्त हो गया। वह अंग्रेज यात्री पूज्यश्री स्वामी जी महाराज की स्थितप्रज्ञता और सच्ची सन्ताई देखकर चकित रह गया।
इसीलिए श्री स्वामी जी महाराज (ट्रेन में चढ़ने से पहले तथा उतरते समय भी) अपने सामान के नग बार- बार गिनते थे जिससे कि कोई असुविधा न हो । पूज्यपाद श्रीस्वामी जी महाराज जैसा स्थितप्रज्ञता तथा समभाव हम लोगों को भी अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
‘ऐसे सज्जन धन्य का, भक्त सन्त है नाम ।
रक्खे भरोसा राम का, करे राम का काम ।।’
(4)
एक बार पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज के सानिध्य में बिरला हाऊस, ग्वालियर में साधना-सत्संग लगा हुआ था । उन दिनों भोजन के बर्तन में, थाली, गिलास, कटोरा तथा चम्मच ले जाना होता था । कटोरी नहीं ले जानी होती थी । सब्जी थाली में ही परोस दी जाती थी। टाट पट्टी पर बैठाकर भोजन परोसा जाता तथा रवाया जाता था। एक दिन सब्जी कुछ ज्यादा ही | रसीली (अधिक तरी वाली) बन गई। एक कार्यकर्ता साधक ने सोचा कि ऐसी तरी वाली सब्जी थाली में परोसे जाने पर पूरी थाली में फैल जाती जिससे साधकों को भोजन करने में असुविधा होगी। तो वह कार्यकर्ता साधक पास के पार्क में से पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े बीनकर उठा लाये और सबकी थाली के नीचे कोने पर एक-एक पत्थर रख दिया जिससे थाली टेड़ी होने से सुविधापूर्वक रसीली सब्जी खाई जा सकेगी।
पूज्य श्री स्वामी जी महाराज ने पूछा- ‘यह पत्थर के टुकड़े कौन लाया है ?’ अन्य साधकों ने उस लड़के का नाम बताया। श्री स्वामी जी महाराज मुस्कुराकर बोले- ‘साइकिल चलाते चलाते इसकी बुद्धि तीव्र हो गई है । ‘ –
गुरु- आशीर्वाद कभी विफल नहीं जाता । गुरु-मुख से निकले वचन ही थे कि आगे जाकर उस साधक ने अपनी तीव्र बुद्धि से राम-नाम के प्रचार-प्रसार कार्य को ग्वालियर व अन्य स्थानों में बढ़ाया ।
(5)
एक बार ग्वालियर साधना-सत्संग के पश्चात् स्टेशन पर हम पूज्यश्री स्वामी जी महाराज को छोड़ने नहीं जा पाए तो श्री स्वामी जी ने सबसे पूछा- ‘वे दो लड़के कहाँ हैं ?’ साधकों ने कहा- स्वामी जी, वे तो नहीं आ पाए । श्री स्वामी जी ने जेब से दो मालायें निकालकर डॉ. बेरी साहब को दीं और कहा- ‘मेरी ओर से उनको दे देना ।’
आदरणीय डॉ. बेरी साहब बड़े व्यक्ति थे। वे चाहते तो वे अपने किसी कर्मचारी के हाथों उन नवयुवकों को मालायें भिजवा सकते थे। किन्तु उन्होंने स्वयं उन नवयुवकों के घर जाकर पूज्यश्री स्वामी जी महाराज द्वारा दी गई मालाएँ दीं। उस दिन से हमने भी ठान लिया कि अपने गुरुजनों द्वारा प्रदत्त कार्य को हमने स्वयं ही पूरा करना है। आदरणीय डॉ. बेरी साहब जैसे वरिष्ठ साधकों से हमने यह सीख ली। आगे जाकर उन दोनों नवयुवकों को पूज्यश्री स्वामी जी महाराज ने राम सेवक संघ का सदस्य बनाया ।
‘जो जन उस के हो गये, किये समर्पण आप | दोष दूर उन के भगें, उन्हें छूएँ न पाप ।।’
(श्री भक्ति प्रकाश)
(6)
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।
आलसी लोगों के लिए संत मलूकदास जी का यह कथन बहुत उचित है- अजगर को किसी की नौकरी नहीं करनी होती और पक्षी को भी कोई काम नहीं करना होता, ईश्वर ही सबका पालनहार है इसलिए कोई भी काम मत करो, ईश्वर स्वयं कर देगा ।
एक बार साधना – सत्संग ग्वालियर के प्रवास पर पूज्यपाद श्रीस्वामी जी महाराज आये हुए थे। इस दौरान एक साधिका ने श्री स्वामी जी महाराज से इस दोहे के विषय में पूछा ।
पूज्य श्री स्वामी जी महाराज ने उत्तर दिया- ‘अजगर पंछी काम नहीं करते तो खाते क्या हैं ? तभी तो कीड़े-मकोड़े खाते हैं। जो जितना पुरुषार्थ करेगा, | वैसा ही फल पाएगा।’ अर्थात् हमारे पूज्य गुरुजनों ने सदैव ही कर्मयोग पर बल दिया है। कर्मठ होने के लिए, पुरुषार्थ करने के लिए तथा कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित किया है। यह कभी नहीं कहा कि अपने कर्तव्य कर्म, अपने विहित कर्म छोड़कर भगवान के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहो ।
श्री रामायण जी भी हमें कर्मयोगी बनने के लिए प्रेरित करती हैं । भगवान् श्रीराम को जब वनवास मिला तो वे यदि चाहते तो वनवासी बनकर तप करते रहते। संत-मुनियों के दर्शन कर घूमते फिरते । उन्हें क्या आवश्यकता थी, भीलों को, वानरों को शस्त्र – विद्या सिखाने की अथवा खर-दूषण जैसे असुर जाति का विनाश करने की । वे चाहते तो वन में भी शान्तिपूर्वक जीवन जीते । परन्तु अपने कर्म बल से, कर्म योग से, पुरुषार्थ से भगवान् श्रीराम ने सम्पूर्ण मानव-जाति का कल्याण किया तथा अपने कर्म योग से भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित किया ।
श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को ही उच्चतम बताया है। अर्जुन को भगवान ने कर्म करने के लिए प्रेरित किया है, अपने कर्म से भागने के लिए नहीं । अर्जुन के रथ पर साक्षात् प्रभु स्वयं विराजमान थे। साथ ही हनुमान जी भी उसी रथ पर विराजित थे। क्या आवश्यकता थी अर्जुन को युद्ध करने की, धनुष-बाण चलाने की अथवा कर्म करने की ? जब भगवान साथ हैं तो उसकी विजय तो निश्चित थी | परन्तु भगवान कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि लोग उनके जीवन से निष्क्रिय बने रहने की सीख लें। भगवान कृष्ण एक सुदर्शन चक्र से कौरवों की पूरी सेना को पराजित करने की क्षमता रखते थे । लेकिन सामान्य जनता को सत्कर्मों से प्रेरित करने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया ।
कर्तव्य कर्म निभाने की, पुरुषार्थ की तथा कर्मयोगी बनने की सीख हमारे गुरुजनों ने भी हमें दी है । अतः स्पष्ट है कि राम-नाम के विस्तार तथा गुरुजनों के कार्य को बढ़ाने के लिए गुरु वचनों तथा सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करने पर परमेश्वर तथा गुरुजनों का आशीर्वाद मिलता है तथा वे सहाई होते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- श्री माधव सत्संग आश्रम, श्रीरामशरणम् ग्वालियर |
- सच्चा पुरुषार्थ ही परमार्थ की ओर ले जाता है। जो कुछ हमारा कर्त्तव्य है वह तो हमें करना चाहिए।
- जादू हो जाएगा ऐसा कम सोचो, अपना प्रयत्न करो ।
सर्वश्रेष्ठ है यह, तजि नहीं पुरुषार्थ ।
अन्त समय तक आश, रखकर साधिए स्वार्थ ।।
जी जीवन पर खेल, करिए सिद्ध परमार्थ ।
है ही शक्ति उद्योग, जीवन सार यथार्थ ।।
होवे नहीं निराश, कष्ट अति काल कड़े से ।
आगे बढ़ता जाय, मनस्वी उत्साह बड़े से ।।
भगें भ्रम भय भूत, उद्यमी वीर खड़े से ।
चूहा बिल्ली न डरे, आलसी लिटे पड़े से।।
(श्रीरामायण सार)
(6)
श्रीमद्भगवद् गीता में आदर्श पुरुष के भिन्न नामों से लक्षण वर्णन किये गये हैं। दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ, बारहवें अध्याय में भक्त, चौदहवें में त्रिगुणातीत तथा सोलहवें में दैवी सम्पत्ति – सम्पन्न पुरुष के रूप में के लक्षण वर्णित हैं। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा भक्ति और भक्त के लक्षण बड़े सुन्दर हैं । उनको अपने जीवन में बसाना चाहिये।
बिरला हाऊस, ग्वालियर में साधना – सत्संग के दौरान ही पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ने साधकों को स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा भक्ति और भक्त के लक्षण के श्लोक कण्ठाग्र कराए थे। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों के प्राक्कथन में श्री स्वामी जी महाराज ने लिखा भी है- ‘प्रत्येक नर-नारी को चाहिए कि वे इस भाग के श्लोकों को मननपूर्वक कण्ठाग्र करके प्रतिदिन उनका पावन पाठ किया करें ।’ गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए इसीलिए श्री माधव सत्संग आश्रम, ग्वालियर में भी समय-समय पर अनेक साधकों को ये श्लोक कण्ठाग्र कराए जाते रहे हैं ।
स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा भक्ति और भक्त के लक्षण के श्लोक का पाठ करने का लाभ :
- नित्य पाठ तथा मनन करने से हमारी मनोवृत्तियाँ सुधरती हैं ।
- क्रोध, निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान, लोभ, मोह आदि वृत्तियों में कमी आती है तथा स्वभाव निर्मल होता है ।
- समता-भाव बढ़ता जाता है, जैसे- सुख-दुःख, हानि- लाभ, शीतोष्ण, निन्दा – स्तुति आदि में सम रहने का भाव सजग हो जाता है।
- प्रसन्नचित्त रहने का स्वभाव बन जाता है ।
- बुद्धि स्थिर हो जाती है, भक्ति भाव बढ़ जाता है और हम परमात्मा के प्रिय भक्त बन जाते हैं ।
इसका प्रेक्टिकल उदाहरण है- ग्वालियर के वरिष्ठ साधक श्री भगवती प्रसाद जी, जो सिंधिया घराने के टेलर मास्टर थे। पूज्यश्री प्रेमजी महाराज से नाम- दीक्षित वे साधक जी अति क्रोधी स्वभाव के थे। एक बार वे पूज्य श्री प्रेमजी महाराज से मिलने कमला नगर, दिल्ली गए। उन्होंने अपनी क्रोध अवस्था के बारे में बताया तो पूज्यश्री प्रेम जी महाराज जी ने औषधि रूप में स्थित प्रज्ञ के लक्षण (श्लोक सहित) 40 दिन तक पाठ करने का संकल्प लेने के लिए उनसे कहा । ऐसा करने पर उन साधक जी को बहुत लाभ मिला, उनके स्वभाव में बहुत परिवर्तन आया तथा वे प्रसन्नचित्त रहने लगे।
भगवान को प्यारा वही होता है, जो प्रत्येक परिस्थिति में सम रहने वाला हो । आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों को सत्संग में आकर अपना जीवन बनाना चाहिए। साधन में लग जाना चाहिए। भगवान को प्रिय लगने वाले गुण अपनाने चाहिए ।
(7)
एक बार ग्वालियर नगर में पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज पधारे। उनके आगमन पर रात्रि 8 से 9 बजे श्री बेरी साहब के निवास स्थान पर सत्संग हुआ। इस सत्संग में आधा घंटा भजन कीर्तन तथा आधा घंटा श्री स्वामी जी महाराज के प्रवचन होते थे । इस सत्संग में एक नवयुवक साधक ने यह धुन गाई- ‘पतितों को तुम करो पुनीता, हे राम सीता! हे राम सीता!’ श्री स्वामी जी महाराज मुस्कुराकर उस युवक से बोले- तुम तो बहुत अच्छा गाने लगे हो । मात्र श्री स्वामी जी के आशीर्वाद के प्रताप से भविष्य में भी उस साधक ने अपने भजनों-धुनों से तीनों गुरुजनों को खूब आनन्दित किया। जबकि इस साधक ने कभी संगीत या गायन की शिक्षा नहीं ली।
(8)
ग्वालियर के एक साधक श्री शशिशेखर नागर ने एक बार पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज से प्रश्न किया – स्वामी जी ! गीता जी में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि सिमरन कर और युद्ध भी कर । तो क्या यह सम्भव है ? स्वामी जी ने उत्तर दिया- बिल्कुल सम्भव है ! फिर उन्होंने साइकिल का उदाहरण देते हुए समझाया जैसे- हम साइकिल चलाते हैं तो हम अपने गंतव्य हेतु चलते भी जाते हैं और मन ही मन किसी भी विषय पर चिन्तन भी करते जाते हैं । इस प्रकार से दोनों ही कार्य (सिमरन तथा युद्ध) सम्पन्न हो जाते हैं अर्थात् हाथ में काम तथा मुख में राम भी चलता रहे, यह ऐसे ही है।
श्री नागर जी ने बताया कि मैंने अनेक संत- महात्माओं से यह प्रश्न पूछा था लेकिन आज श्री स्वामी जी महाराज द्वारा पूर्ण समाधान हुआ ।
भगवान श्रीकृष्ण का अमर संदेश है- ‘हे अर्जुन! सब समय में तू मुझे स्मरण कर और युद्ध कर। (अर्थात् नाम-स्मरण करते हुए सभी कर्त्तव्य कर्मों का पालन करता चल) इस प्रकार मन और बुद्धि मुझमें अर्पित किये हुए संदेह रहित, तू मुझको ही प्राप्त कर लेगा ।’
श्री स्वामी जी महाराज के अनुसार-
हरि को सिमरो ध्यान से, चलते-फिरते बाट । काम-काज में सिमरिये, सुखकर योग विराट॥
योग रीति यह सुगम है, फल है परम अपार । अति विश्वास का काम है, श्रद्धा की है कार ॥
जगत के सभी कर्म करते हुए ‘राम-राम’ की धुन लगी रहे। हाथ-पाँव से कार्य करते हुये भी मुख में राम- नाम का जप होता रहे। इस प्रकार निश्चय से एक पंथ दो कार्य होते जाते हैं। इसे ही भक्ति धर्म का रहस्य एवं आत्म-परमात्म मिलन की सुगमतम रीति समझिये ।
‘मुख में राम, हाथ में काम’ । यह श्री स्वामी जी महाराज का विराट योग है।