पूज्य श्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज का युवक-युवतियों के विवाह सम्बन्धी संदेश
24th Jun 2023पूज्य श्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज का युवक-युवतियों के विवाह सम्बन्धी संदेश
सत्य है ! युवक-युवतियों की विवाह सम्बन्धी समस्या अति जटिल है। इसका उचित समाधान एवं उपचार उन्हीं के हाथ में है, जिनकी यह समस्या है। अतएव युवा वर्ग एवं उनके परिवारों को इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श करके सही निर्णय लेने चाहियें। जबसे हमने अपनी शाश्वत संस्कृति से मुख मोड़ लिया है, तबसे समस्यायें बढ़ती ही जा रही हैं। भारतीय परम्परा क्या है? इसे जानकर भावी योजनायें बनें, अनुपालन के लिये दृढ़ निश्चयी बनें, तो कोई कारण नहीं दीखता कि कुरीतियाँ उन्मूल न हो सकें।
सर्वप्रथम माता-पिता द्वारा बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा कैसी हो? सुनयना, जानकी सहित चारों पुत्रियों को छलकती हुई आँखें, हृदय से लगाकर संस्कृति का बोध कराती हुई विदाई देती है- ‘कन्याओ ! मन, वचन और कर्म से अपने-अपने पति की पूजा करना, यही नारी धर्म है। रघुवंश की पुत्र-वधू बन कर जा रही हो, दुःख विपत्ति पड़े, जीवन में कोई कठिनाई आये, तो किसी को पता न लगे, सहन करना, दो चार आँसू बहा लेना, पर कुल का गौरव संभाल लेना। भारतीय परम्परा में जिसके पुत्र महान बनते हैं, वे अपने कुल का उद्धार करते हैं, पर जिस कुल की पुत्री महान होती है, वह पति व पिता दोनों के कुलों का उद्धार करती है। आप दोनों कुलों का उद्धार करने वाली बनना। सास-ससुर, कुलगुरू की सेवा करना, सदा पति संग रहना, उनके कदमों पर चलना । ऐसे सुसंस्कार प्राप्त कर, आजीवन आचरण किया, त्रेता युग की बच्चियां अभी तक पूजनीय हैं, वन्दनीय हैं।
राजा दशरथ चारों पुत्रों एवं बहुओं सहित अयोध्या लौटे हैं। कौशल्या माँ सहित विवाह का विवरण सुनकर पुलकित हो रहे हैं। महारानी ने पूछा- ‘महाराज ! राजा जनक के बारे में कुछ बतलाने की कृपा करें । दशरथ की आँखों से झर-झर आँसू बरसने लगे, कहा- ‘महारानी! मैं इसलिये नहीं रो रहा कि बारात की सेवा संतोषजनक नहीं हुई या दहेज कम मिला है। दहेज कम या अधिक देख प्रसन्न या दुःखी होने वाले तो बहुत छोटी बुद्धि के होते हैं। मैं तो इसलिये रो रहा हूँ जो चार-पुत्रियों के दान का अवसर मिथिला नरेश को मिला, वह मुझे कभी नहीं मिलेगा। बिदाई के समय कैसे व्यथित थे राजा जनक, उनकी पीड़ा को याद करके पीड़ित हो रहा हूँ।’ तीनों रानियों से कहा, ‘बहुयें अभी बच्चियां हैं, पराये घर आई हैं, इन्हें ऐसे रखना जैसे पलकें नेत्रों को । जैसे वे सुरक्षित व सुखी रखती हैं, ऐसे ही इन्हें आप रखना। बहुओ! तुम सासों के हृदय में ऐसे बस जाना कि इन्हें लगे ही न कि आप पराये घर से आई हो । सास का कर्त्तव्य है कि बहू को अपनी गोद में जगह दे और बहू का कर्तव्य है, सास-ससुर को हृदय में स्थान दे, उनके मनों को, दिलों को जीत ले । बच्चियों ! लड़-झगड़ के, बिखर के क्यों अपनी शक्तियों का ह्रास करना ? यहां कभी 19-20 हो भी जाये, तो मन उद्विग्न की सूचना मायके न देना, उन्हें दुःख में नहीं डुबाना।’
यदि ननद भाभी से दुर्व्यवहार करते समय सोचे कि कल को उसे भी भाभी बनना है तथा उसे भी नाक में दम करने वाली ननद मिल गयी तो दुःखदायी आचरण छूटने की सम्भावना है। माँ सोचे, मेरी पुत्री को भी बहू बनना है, तो घर में आई बहू लक्ष्मी के साथ अत्याचार करते हृदय काँपेगा। घर में आई बहू, पुत्री बनकर रहने की कला सीख ले और सास माँ बनने की युक्ति सीख ले तो अदालत के चक्कर न लगाने पढ़ें, घर की स्वामिनी बन कर रह सकती है।
परस्पर दिलों को एक कुटुम्ब को जोड़कर रखने के, कलह-क्लेश से बचने के अमोघ सूत्र आज के युवक युवतियाँ, माता-पिता व सास- ससुर अपने-अपने जीवन में उत्तार सकें, यही परमेश्वर से मेरी कर-बद्ध प्रार्थना है। इस संदेश को पढ़ने-सुनने वालों से सविनय निवेदन है कि इसे अव्यावहारिक समझ कर कूड़ादान में न डाल दें। कुछेक तो इसे जीवन में उतारने की हिम्मत करें। जीवन में सुधार तथा फलतः उद्धार के लिये एक ही चमत्कारी शब्द की जरूरत है, वह जादूई शब्द है- ‘दिव्य प्रेम’ जिसका अर्थ है- ‘मैं को परे सुटना (करना) यदि यह जीवन में आ गया और साथ ही साथ आ गये सहनशीलता, क्षमा एवं निःस्वार्थतता जैसे गुण। बस गृहस्थी बन गयी वैकुण्ठ-परम धाम।’
अति मंगल एवं शुभ कामनायें ।