भक्ति की अनुपम देन
02nd Aug 2023भक्ति की अनुपम देन
[पूज्यश्री डॉ. विश्वामित्र जी महाराज ]
[1]
भक्ति जोड़ना, जुड़ना जानती है, तोड़ना नहीं !
भक्ति जोड़ना, जुड़ना जानती है, तोड़ना नहीं, अपनाना सिखाती है, तिरस्कार करना नहीं ।
एक महानगर के सेठ रेल में यात्रा कर रहे थे। एक संत से मिलन हुआ, कहा, ‘महाराज ! परमेश्वर कृपा से रोज सत्संग में जाता हूँ, बड़ी शान्ति मिलती है, बहुत कुछ सीखने को मिलता है, दिन भर आनन्दित अनुभव करता हूँ परन्तु घर लौटते ही गुड़-गोबर हो जाता है- पत्नी की कर्कश-वाणी असह्य पीड़ा देती है, रोज का यही हाल, कुछ नहीं सूझता क्या करूँ ?’
संत ने पूछा, ‘परिवार को कितना समय देते हो ?’ ‘महात्मन्! समय है कहाँ ? प्रातः सैर, फिर सत्संग, वहाँ सेवा का सुअवसर भी मिल जाता है। घर लौटते 9 बज जाते हैं। जल्दी से नाश्ता करके फैक्टरी के लिए प्रस्थान करता हूँ। वहाँ से लौटते फिर नौ बज जाते हैं। रात्रि का भोजन खाया, इतनी थकान कि तत्काल सो जाता हूँ। प्रातः जल्दी उठता हूँ आप ही बतायें कब बैठूं ?’
‘भाई! जैसे सत्संग, व्यापार, सेवा व स्वास्थ्य के लिए समय निकालते हो, वैसे ही परिवार को भी समय दो, कार्यालय का समय कम करो । घर के सदस्यों के साथ बैठो, प्रेम से बातचीत करो, कुछ उनकी सुनो, उनकी मानो । सत्संग- भक्ति अनिवार्य, पर परिवार का तिरस्कार करोगे तो अशान्ति रहेगी । ‘
उसने घर लौटकर वैसा ही किया, रोज 2- 3 घंटे परिवार के साथ बिताये, पत्नी-बच्चे सभी प्रसन्न! सन्त के सुझाव से सब इतने प्रभावित हुए कि सबने सत्संग का आनन्द लेना प्रारम्भ कर दिया।
आपस में मिलकर रहो, राम भजो ले नाम | एकता बने अभंग तब, आत्मा पाय विश्राम ॥
[2]
भक्ति भक्त को छलहीन एवं शिशुवत् बना देती है !
प्रभु श्रीराम शबरी से कहते हैं- ‘सरलता, सबके साथ छल-कपट रहित बर्ताव ही मेरी भक्ति है।’
भक्ति भक्त को छलहीन एवं शिशुवत् बना देती है। भक्त कबीर को एकदा चोरों ने पकड़ लिया, उनसे सामान उठाने का काम लेते। एकदा चोरी करने साथ ले गये । सामान बँधने लगा तो कबीर ने घर के मालिक सेठ को जगाया, कहा, ‘भाई! देख लो, इतना सामान ले जा रहे हैं, बाद में मत कहना कि बताया नहीं था ।
हम किसी से धोखा – कपट नहीं कर सकते।’ भक्ति भक्त के हृदय में छल-कपट नाम – मात्र भी नहीं रहने देती ।
[3]
भक्ति- भक्त को अहं शून्य बनाती है !
भक्ति के आचार्य देवर्षि नारद की घोषणा है- कर्म न गुण कराते हैं, न प्रकृति, भीतर बैठे ईश्वर स्वयं करवाते हैं । श्रुति भी कहती हैं, ‘जिसे परमात्मा ऊपर उठाना चाहता है, अपने पास बुलाना चाहता है, उससे वही अच्छे कर्म करवाता है।’ अर्थात् भक्त में अपना बल नहीं, सब भगवान् करता एवं करवाता है । इस भावना से भक्त अहं – शून्य हो जाता है, अहंता-रहित ।
[4]
भक्त केवल श्रीराम-कृपा पर आश्रित
भक्ति भक्त को भगवान् पर पूर्णतया निर्भर बनाकर, उसे निर्भार बना देती है। भक्त केवल श्रीराम कृपा पर आश्रित रहता है।
एक आध्यात्मिक संस्था निर्धन विद्यार्थियों की शिक्षा के साथ उनके भोजन-वस्त्र आदि की भी व्यवस्था करती थी । संस्था के संचालक को प्रभु के मंगलमय विधान में अटूट विश्वास था, अतः निष्काम भाव से सेवा करते, कभी दानादि मांगने न जाते। सभी कार्य, सभी आवश्यकताएँ यथा समय प्रभु-प्रेरणा से सम्पन्न होती रहतीं। एक दिन मैनेजर ने सूचना दी, ‘आज भंडार में अन्न का दाना नहीं था अतः चूल्हा नहीं जलाया, भोजन नहीं दिया जा सकेगा।’ संचालक ने कहा- ‘जो रामेच्छा !’ मैनेजर ने सोचा- भोजन का समय होने वाला है, घंटी बजेगी तब क्या देंगे खाने को ? और ये कह रहे हैं- जो रामेच्छा! घंटी बजी, मेजों पर प्लेट चम्मच रखे गये, बच्चे आकर बैठ गये । संचालक अपने राम की याद में लीन बैठे हैं, उसी समय गेट पर एक ट्रक रूका, एक व्यक्ति भीतर आया, संचालक से बोला, ‘श्रीमान जी ! मेरे मालिक ने एक पार्टी का आयोजन किया था। जिस व्यक्ति के सम्मान में यह भोज रखा गया था, वह नहीं पहुँच सके । अत: मालिक ने यह ढेर सारा भोजन आपकी सेवा में भेजा है, कृपया स्वीकार करें। सब बच्चों को भरपेट भोजन मिला। संचालक की आँखें, प्रभु के प्रति कृतज्ञता के आँसुओं से छलक उठीं।
भगवान् देखता है- हम किस पर निर्भर हैं- राम पर या धन पर या संसार पर। जिसे राम कृपा पर दृढ़ विश्वास, उस भक्त को संसार के किसी आसरे की जरूरत नहीं, भक्ति ऐसा बना देती है। ‘
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भक्ति : भक्त के स्वभाव को विशुद्ध, कोमल व मधुर बना देती है !
भक्ति कोमल बना देती है- जैसे चावल उबालने से उसकी कणिका मर जाती है, उसका कड़ापन दूर हो जाता है, नरम हो जाता है, वैसे ही भक्ति भक्त की अकड़न दूर करके, भीतर बाहर से उसे कोमल बना देती है । व्यक्तित्व तो बना रहता है, किन्तु भीतर की कठोरता नष्ट हो जाती है, अभिमान का कोई कण शेष नहीं रहता ।
भक्ति मधुर भी बना देती है, इतना मधुर कि जो भक्त के सम्पर्क में आता है, उसे भी माधुय की प्राप्ति होती है। उसके शब्द, प्रभु के शब्द हो जाते हैं, उसका स्पर्श, प्रभु का स्पर्श होता है। किसी को दुःख नहीं देता, सबको प्यार देता है।
अस्तु सबको प्रिय लगने वाला आचरण, विनम्र – मधुर – संयमित वाणी, सबका मंगल चाहने वाली बुद्धि, अपना गुण- गौरव छिपा रखने की प्रवृति, कोई सामने हो या पीछे-प्रेम में कोई विकृति नहीं, हृदय का रस मधुर ही बना रहता है जैसे चीनी को स्वच्छ जल में घोलों या गंदे जल में, मिठास ही देती है- ऐसा विशुद्ध, कोमल व मधुर स्वभाव बना देती है – भक्ति ।
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जिसने झुकना सीख लिया, परमात्मा उसे अपने जैसा महान् बना देते हैं !
भक्ति व्यक्ति को विनम्रता सीखने की प्रेरणा देती है- जल से भरे घड़े पर रखी कटोरी ने एक दिन शिकायत की- ‘तुम बड़े उदार हो, तुम्हारे पास जो पात्र आता है, उसे तुम पानी से भर देते हो, किसी को भी खाली नहीं जाने देते । ‘ ‘हाँ ! यह सत्य है क्योंकि मेरे भीतर का सारा सार दूसरों के लिए है।’ कटोरी बोली- ‘तब तुम मुझे क्यों नहीं भरते जबकि मैं हर समय तुम्हारे सिर पर बैठी रहती हूँ ?’
‘देवि ! इसमें दोष मेरा नहीं, तेरे अभिमान का है, जिसके कारण मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो, जबकि दूसरे पात्र मेरे पास आकर झुकते हैं, अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। तुम भी झुकना सीखो, विनम्रतापूर्वक मेरे पास आओ तो तुम्हें भी भर दूँ । पूर्णता की प्राप्ति नम्रता से, अभिमान से नहीं ।’
जिसने झुकना सीख लिया, परमात्मा उसे अपने जैसा महान् बना देते हैं ।
मोटा तन अभिमान का, लांघे ने भक्ति द्वार । हस्ति यथा मणि छिद्र से, पा सके नहीं पार ।।
पीना चाहे भक्ति रस, मन चाहे अभिमान। एक कोष में दो खड्ग, देखे सुने न कान ॥
(श्री भक्ति प्रकाश से)
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नम्रता वास्तविक महानता है, जो भक्ति प्रदान करती है!
एक विशाल, आकाश की ऊँचाई को छूने वाला पेड़ और पास ही छोटी-छोटी झाड़ियों का झुंड था। संत ने इन दोनों से हाल-चाल पूछा । वृक्ष ने अपने विस्तार की, बड़प्पन की बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा की और धरती पर रेंगती झाड़ियों का उपहास उड़ाया। झाड़ियों ने अपनी स्थिति पर संतोष व्यक्त करते हुये कहा – ‘बाबा! हम प्रसन्न हैं, बड़े प्राणियों को न सही, पर छोटों को तो छाया प्रदान करती ही हैं । ‘
बहुत दिन बाद, संत पुन: उसी रास्ते से वापस लौटे। वहाँ पर वह पेड़ तो नहीं था, पर झाड़ियाँ खूब फैल गई थीं। संत द्वारा झाड़ियों से पूछने पर वे बोलीं- ‘महात्मन् ! हमें अपनी तुच्छता का भान था, तूफान आते ही सिर झुका दिया, तूफान हमारी धूल झाड़ता ऊपर से निकल गया और हम सुरक्षित रहे, जबकि पेड़ अकड़ा रहा और धराशायी हो गया। ‘
नम्रता है वास्तविक महानता, जो भक्ति प्रदान करती है। यह भी सत्य है- भक्ति चुनती भी उसे ही है, जिसमें झुकने की क्षमता है। पूर्ण लाभ वपूर्ण प्रकाश उसी पर होता है, जिसने झुकना सीख लिया है। भले ही वह भक्ति- माँ अपने सभी बच्चों को एक जैसा वात्सल्य प्रदान करती है परन्तु अभिमान व्यक्ति को झुकने नहीं देता तथा मन में भक्ति नहीं आने देता ।
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पराभक्ति ही जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि है !
भक्ति करने से अभिमान जैसा अमिट दुर्गुण भी दूर हो जाता है। स्वर्ण की चोरी, शराब पीना, गुरु व अपने से बड़े की स्त्री के साथ अनाचार, ब्राह्मण की हत्या तथा इन चारों में से किसी का साथ देना, ये पाँच महापाप हैं। कुसंग भी महापाप है । सामान्य व्यक्ति इनमें से किसी न किसी महापाप को करता ही है। भक्ति इनका संसर्ग- दोष भी दूर करती है।
भगवान् के प्रति भगवद् अपराध, भक्त के प्रति भक्त अपराध, ये भी प्रायः हम से होते रहते हैं। भक्त अपराध जो भगवान् भी क्षमा नहीं करते। भक्ति इन अपराधों से बचाती भी है और यदि हो जाये तो भक्ति उसके दोष को, फल को नष्ट भी कर देती है । भक्ति हरेक के लिए हर प्रकार से श्रेष्ठ है। अपने मोहल्ले में कुछ को जानना, देखकर प्रसन्न होना, भक्ति नहीं । किसी से सम्बन्ध जुड़ गया, उसे देखे बिना अब रहा नहीं जाता, यह राग है, मोह है। संसार से राग होगा तो उत्तरोत्तर पतन का कारण होगा। वही यदि राम से हो जाये तो अनुराग से हर प्रकार की उन्नति लाभ, केवल लौकिक ही नहीं, अलौकिक लाभ भी प्राप्त होते हैं। पहले नाम- स्मरण, फिर सम्बन्ध, अब दर्शन किये बिना रहा नहीं जाता, फिर राम से वार्तालाप, स्पर्श और अन्त में भगवान् से तादात्म्य होना – यही है पराभक्ति – जीवन की श्रेष्ठतम उपलब्धि।
भक्ति द्वारा ऐसी अनूठी उपलब्धि जानकर, उसके महामहात्म्य का बोध होने पर जो कोई भी हमें अपनी जीवनचर्या में उतारेगा, उसका जीवन आनन्दमय हुए बिना, कृतकृत्य हुए बिना नहीं रह सकेगा जीवन सफल हो जायेगा- पूर्णतया शान्त हो जायेगा ।
भक्ति स्वभावतः भक्त की सकल कामनाओं को अर्थात् वासना को मिटा देती है ।
जिसमें बस जाय राम सुनाम । होवे वह जन पूर्णकाम ।। (अमृतवाणी)
इसका अभिप्राय यह नहीं, इसके बाद भक्त अनावश्यक समझ भक्ति करनी बन्द कर देगा । नहीं, ऐसा कभी नहीं, उसकी प्यास सदा- सदा इस प्रकार बनी रहेगी । भक्ति में प्यास का सदा बने रहना ही भक्ति की तृप्ति है ।
[9]
भक्तिहीन व्यक्ति जीवित शव है !
प्रेम को विश्व – प्रेम बनने की प्यास । भक्ति में वृद्धि, नामस्मरण की प्यास ।
प्रभु राम से और अधिक प्यार पाने की प्यास । संसार राम-नाम जपे, इस सेवा की प्यास ।
हनुमान जी महाराज तो यहाँ तक कहते हैं ‘भक्तिहीन व्यक्ति जीवित शव है । अन्तः करण मुर्दा, ऐसे जीवन की कोई सार्थकता नहीं ।’
हनुमान जी से पूछा गया कि व्यक्ति को, खेत को, घरों को जलाने वाले को आततायी कहा जाता है- महापापी माना जाता है । आपने तो अधिकांश लंका जला दी । तब बुद्धिमान हनुमान जी ने कहा, ‘भाईयो ! जीवित को जलाना पाप है, पर शव को जलाना तो पुण्य, मैंने तो भक्तिहीन लंका रूपी शव को ही जलाया है, अतः पाप नहीं किया । ‘
शव में अकड़न होती है, अतः अपनी जीवनचर्या में भक्ति का वरण करके विनम्रता जैसी, झुकने जैसी महानतम उपलब्धि लाभ करें, जीवन सार्थक बनायें ।
मानव जन्म अनमोल रे, माटी में न रोल रे।
अब जो मिला है, फिर न मिलेगा, राम-राम बोल रे।