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29th Jul 2024
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स्वाध्याय-परम तप
30th May 2024॥ श्री राम ॥
स्वाध्याय-परम तप
स्वाध्याय का अर्थ अपने आप अध्ययन करना है। स्वाध्याय करने के लिये भावना होनी चाहिये। स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ता है। शास्त्रों का, अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय मन में रुचि पैदा करता है और लाभजनक है। यदि भावना से स्वाध्याय करे, तो करने वाला तो गद्गद् हो जाता है और देशकाल को भूल जाता है। स्वाध्याय करने का स्वभाव बनाना चाहिये। ग्रन्थों का पाठ मंगलमय होता है। जिनके घरों में स्वाध्याय होता है, उनके यहां संतान बड़े शुद्ध संस्कारों से युक्त, मनस्वी तथा वीर होगी।
श्रीमद्भगवद् गीता के सोलहवें अध्याय `दैवासुरसम्पद विभाग योग’ के आरम्भ में ही भगवान श्रीकृष्ण का कथन है-
हे भारत ! निर्भयता, अन्तःकरण की शुद्धि, ज्ञान और योग में स्थिति, दान, इन्द्रिय-दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, ।।१।।
अष्टांग योग साधना में `नियम’ के अन्तर्गत पूज्यपाद श्रीस्वामी जी महाराज ने भक्ति-प्रकाश में चौथे नियम – स्वाध्याय का उल्लेख किया है-
‘धर्म ग्रन्थ के पाठ का, करिए बहुत विचार । स्वाध्याय व्रत पालिए, मन में निश्चय धार ।।’
‘विशेष साधना-यज्ञ’ में श्री माधव सत्संग आश्रम, श्रीराम शरणम्, ग्वालियर के साधक ‘स्थितप्रज्ञ के लक्षण’ तथा ‘भक्ति और भक्त के लक्षण’ का स्वाध्याय कर रहे हैं।
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज ने बिरला हाउस, ग्वालियर में साधना-सत्संग के दौरान ही साधकों को स्थितप्रज्ञ के लक्षण तथा भक्ति और भक्त के लक्षण के श्लोक कण्ठाग्र कराए थे। स्थितप्रज्ञ के लक्षणों के प्राक्कथन में श्रीस्वामी जी महाराज ने लिखा भी है- ‘प्रत्येक नर-नारी को चाहिए कि वे इस भाग के श्लोकों को मननपूर्वक कण्ठाग्र करके प्रतिदिन उनका पावन पाठ किया करें।’
‘स्थितप्रज्ञ के लक्षण’ तथा ‘भक्ति और भक्त के लक्षण’ का स्वाध्याय करने का लाभ
■ नित्य पाठ तथा मनन करने से हमारी मनोवृत्तियाँ सुधरती हैं।
■ क्रोध, निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान, लोभ, मोह आदि वृत्तियों में कमी आती है तथा स्वभाव निर्मल होता है।
■ समता-भाव बढ़ता जाता है, जैसे- सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीतोष्ण, निन्दा-स्तुति आदि में सम रहने का भाव सजग हो जाता है।
■ प्रसन्नचित रहने का स्वभाव बन जाता है।
■ बुद्धि स्थिर हो जाती है, भक्ति-भाव बढ़ जाता है और हम परमात्मा के प्रिय भक्त बन जाते हैं।
भगवान को प्यारा वही होता है, जो प्रत्येक परिस्थिति में सम रहने वाला हो।
आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले साधकों को सत्संग में आकर अपना जीवन बनाना चाहिए। साधन में लग जाना चाहिए।
भगवान को प्रिय लगने वाले गुण अपनाने चाहिए।
प्रेषक : श्रीराम शरणम्, रामसेवक संघ, ग्वालियर