व्यास पूर्णिमा-विक्रम सम्वत् 2080

Shree Ram Sharnam Gwalior

श्री राम शरणम्

राम सेवक संघ, ग्वालियर

‘नामोपासना भक्ति-प्रधान है!’-पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज की मुखारविन्द से

15th Mar 2025

पूज्यश्री महाराज जी के जन्मदिवस पर विशेष

 

नामोपासना भक्ति-प्रधान है!

पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज की मुखारविन्द से
सन्त तुलसीदास जी कहते हैं- ‘राम नाम नर केसरी, कनक कसिपु कलिकाल। जापक जन प्रह्लाद जिमि, पालिहि दलि सुरसाल ।।’ (रा.च.मा.)
अर्थात् – भगवान श्रीराम का नाम साक्षात् नृसिंह भगवान है। कलिकाल मूर्तिमान हिरण्यकशिपु है। और राम-नाम का जप करने वाला जापक प्रह्लाद है। जिस प्रकार सतयुग में हिरण्यकशिपु के अत्याचारों से संत्रस्त प्रह्लाद के संकट का निवारण नृसिंह के रूप में प्रकट होकर भगवान करते हैं, उसी प्रकार आज भी कलियुग में नाम-भगवान द्वारा हमारी समस्याओं, हमारे संकटों से हमें छुटकारा मिलता है। प्रह्लाद को उसके राक्षस पिता द्वारा यातनायें दी जाती हैं, उन्हें अग्नि में जलाया जाता है, सर्प से इंसवाया जाता है, पर्वत से गिराया जाता है तथा भूख से सताया जाता है। विचार करके देखें तो साधक के साथ भी यही कुछ होता है। चाहे वह बाहर का सांप न हो, बाहर का पहाड़ न हो तथा बाहर की आग न हो। पर क्या ईर्ष्या, द्वेष व क्रोधाग्नि से साधक संत्रस्त नहीं होता ? क्या चिन्ता की आग में सभी लोग नहीं जल रहे ?
‘चिन्ता की लगी आगि है, जरे सकल संसार। पलटू बचते संत, जिन लिया नाम आधार ।।’
दुर्गुणों के सांप साधक को इंसने को तैयार रहते हैं। विषयों का विष उतरता ही नहीं। चिन्ता की अग्नि सदैव जलाती रहती है। अहंकार का पर्वत गिराने के लिए सर्वदा तत्पर रहता है।
कलियुग में भगवान् नामावतार के रूप में जीवों का कल्याण करते हैं। अतः जो साधक भगवन्नाम का आश्रय लेते हैं, उनकी रक्षा के लिए अन्ततोगत्वा एक दिन भगवान अपनी पूर्ण-शक्ति के साथ प्रकट या अप्रकट रूप में हिरण्यकशिपु रुपी कलियुग का संहार अवश्य करते हैं। इस प्रकार साधक की साधना सफल होती है।
कलियुग की बुराईयों द्वारा प्रस्तुत विघ्न-बाधाओं के मध्य में नामोपासना का होना, यह भगवान की कृपा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जीवन्त उदाहरण हैं- गोस्वामी तुलसीदास एवं भक्त शिरोमणि सूरदास जी की। ये जन्मते ही संत-भक्त नहीं थे। नाम की आराधना की, भगवान ने कृपा करके उनके दुर्विचारों, दुर्गुणों, दुष्वृत्तियों एवं उनकी दुर्बलताओं को दूर करके, चित्त का शुद्धिकरण करके, उन्हें वन्दनीय बना दिया और उनकी रचनाओं को अमर। नामोपासना भक्ति-प्रधान है। भक्ति का मार्ग उनका है जिनके पास अपना बल नहीं है। इस पथ का पथिक यदि किसी भी प्रकार अपने बल का स्वयं अनुभव करे अथवा उसे अपने पुरुषार्थ का तनिक भी अभिमान हो, तो वह भक्ति-मार्ग का सच्चा यात्री नहीं, उसके परम बल तो परमात्मा हैं। भक्त का निर्बलत्व ही उसका बल है जो भगवान को आकर्षित करता है। यह मार्ग उनका, जो अपने अहं का हनन कर चुके हैं। वे जानते हैं-
‘नाम मान, मन एक में, एक समय न समाय। तेज तम तो एक स्थल, कहीं न देखा जाये ।।’
(भक्ति प्रकाश)
प्रेषक : श्रीराम शरणम्, रामसेवक संघ, ग्वालियर