पूज्यश्री प्रेम जी महाराज के निर्वाण दिवस (29 जुलाई) पर विशेष
29th Jul 2024
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गुरु एवं गुरु-संगति [स्वामी श्री रामदास जी महाराज के लेख का पूज्यश्री विश्वामित्र जी महाराज द्वारा किये गये अनुवाद से उद्धृत]
01st Jul 2024देव-दया स्वशक्ति का, सहस्र कमल में मिलाप। हो सत्पुरुष संयोग से, सर्व नष्ट हों पाप ।।
(अमृतवाणी)
सत्पुरुष के सान्निध्य से तथा परमात्मा की दया से, कुण्डलिनी शक्ति का हजार पंखुड़ियों वाले कमल सहस्रार, ब्रह्म धाम में मिलन हो जाता है, जिससे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
देवदया से स्वशक्ति का हजार पंखुड़ियों वाले कमल-सहस्र दल में मिलाप होता है। इस मिलाप में सत्पुरुष की आवश्यकता रहती है, तभी जीव के सब दोष नष्ट हो पाते हैं। परम कल्याण की प्राप्ति के लिये परमात्मा की दया, आत्म-शक्ति और सन्त- दया तीनों अपेक्षित हैं।
गुरु एवं गुरु-संगति
[स्वामी श्री रामदास जी महाराज के लेख का पूज्यश्री विश्वामित्र जी महाराज द्वारा किये गये अनुवाद से उद्धृत]
गुरु जब नाम देता है तो उसमें अपनी आध्यात्मिक शक्ति भर देता है। वह मंत्र के द्वारा शिष्य में अपनी शक्ति सम्प्रेषित करता है। ‘गुरु’ शब्द का अर्थ है, ‘अंधकार को दूर करने वाला’ अर्थात् प्रकाश का प्रदायक। गुरु आध्यात्मिक उद्बोधक है। गुरु मानव-रूप में जीवों की अविद्या के प्रतिमोचन के लिए साक्षात् भगवद्मूर्ति है। अज्ञानता रोग है। ज्ञान अरोग्यता है। गुरु दिव्य- भिषग् है, जो हमें आत्मज्ञान देकर आरोग्य बनाता है।
एक योगी जिसे परमात्मा की अनुभूति हो चुकी है, केवल वही दूसरे जीव को उद्दीप्त एवं प्रबुद्ध कर सकेगा। केवल मंदिर में जाने से काम नहीं बनेगा। मात्र पुस्तकों के अध्ययन से भी काम नहीं बनेगा। उन महात्माओं का संग जिन्हें परमात्मा का साक्षात्कार उपलब्ध है, अनिवार्य है।
सन्त विचार, शक्ति, दृष्टि एवं स्पर्श के माध्यम से अपनी शक्ति का संचार दूसरों में करते हैं। जब सन्त किसी मनुष्य पर दृष्टि डालता है तो उसका उद्धार होता है। उसमें एक नवीन चेतनता उदय होती है। यदि सन्त किसी साधक को स्पर्श करता है, तो उसे अपने भीतर व्यापक परिवर्तन की प्रतीति होती है।
सत्संग अर्थात् सन्त का संग निस्संदेह मूल्यवान है। ऐसे कोई बाह्य चिन्ह नहीं जिनके द्वारा एक जीवन्मुक्त-योगी अथवा सन्त पहचाना जा सके। उसके सींग नहीं उग आते। परन्तु वह तो सदैव आनन्दमग्न रहता है तथा समस्त परिस्थितियों में सम रहता है। साधारणतया, किसी चमत्कार की अपेक्षा नहीं रखी जाती, यद्यपि ईश्वरीय इच्छा से प्रेरित, उसकी अपनी इच्छा न होते हुए भी उससे कई चमत्कार हो जाते हैं।
वस्तुतः अन्य कुछ भी इतना उन्नायक नहीं जितना सत्संग अर्थात् सन्त का संग। सभी सन्त गुरु की अनिवार्यता पर सहमत हैं।
ऐसा कहना कि गुरुहीन साधक आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा बिल्कुल वैसे ही कथन के तद्रूप है जैसे कि बच्चा बिना जननी के पैदा हो सके।
एक क्षण के लिए भी अपने अविनाशी परमानन्दमयी सतत्स्वरूप को मत भूलें। ऐसी चेतना अथवा स्मृति तभी बनी रह सकती है, जब आप सन्तों के सतत् सम्पर्क में रहते हैं। उन सभी के प्रति जो आपके सम्पर्क में आते हैं, करुणावान्, क्षमाशील एवं दयालु रहें। । मूक पशुतुल्य न बने रहें।
प्रेषक : श्रीराम शरणम्, रामसेवक संघ, ग्वालियर