पूज्यश्री प्रेम जी महाराज के निर्वाण दिवस (29 जुलाई) पर विशेष
29th Jul 2024
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‘जैसे शाखा जीवित लागे, ऐसे जन गुरूवर से जागे’ [प्राण प्रतिष्ठा : भाग-2]
04th Feb 2024जैसे शाखा जीवित लागे, ऐसे जन गुरूवर से जागे’
[प्राण प्रतिष्ठा : 2]
वेद-शास्त्र के अनुसार, नाम-दीक्षा के पूर्व मंत्रोच्चारण कर परमात्मा का आव्हान करने से जो परम शक्ति अवतरित होती है, उसे ग्रहण करके अन्य व्यक्तियों में संचारित करने तथा परमात्मा का नाम स्थापित करने के लिए एक जाग्रत, चैतन्य, साधन- सम्पन्न शरीरधारी व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिससे जीवन्त नाम-दान दिया जा सके। यह प्रक्रिया जड़-पदार्थों (टी.वी./रेडियो, डीवीडी/पैन ड्राइव) में रिकॉर्ड करके कार्यान्वित करना सम्भव नहीं है। (इसका वैज्ञानिक-प्रमाण आगामी Posts में प्रस्तुत किया जायेगा।)
‘ग्रन्थों में बहुत भेद हैं, पर शाखा से शाख। लगे सुजीवित जानिये, संतों की यह साख ।।’
[भक्ति-प्रकाश]
■ भक्ति-प्रकाश के खण्ड कथा-प्रकाश के पाठ- ‘सिमरन’ के प्रथम पैरा में ही पूज्यपाद श्रीस्वामी जी महाराज ने नाम-दीक्षा देने वाले व्यक्ति की योग्यताओं को स्पष्ट कर दिया है। पूज्यश्री स्वामी जी महाराज ने अनुभवी मनुष्य, ईश्वर कृपा तथा अनुभवी सज्जन लिखा है। यह नहीं लिखा कि कोई electronic यंत्र /माध्यम/device अथवा अन्य विधि भी काम में ले सकते हैं।
पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज ने अपने लेख ‘वास्तविक गुरु दक्षिणा’ में यह स्पष्ट लिखा है- ‘परमात्मा नाम दीक्षा शिष्यों को स्वयं न देकर, शरीरधारी गुरुओं से दिलवाते हैं’ . (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘कल्याण’ पत्रिका- सितम्बर, 2011 में पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज के लेख से उद्धृत)
Not imparting ‘Naam daan’ Himself, but imparting it through Gurus in human form /Physical form.
गुरु से दीक्षा लीजिये, मंगलमय निज नाम ।
‘गुरु’ की परिभाषा को पूज्यश्री स्वामी जी महाराज भक्ति-प्रकाश में स्पष्ट करते हैं-
‘सुगुरु से यहाँ समझिये, ज्ञानी अनुभववान, बोधक धर्म सुकर्म में, दाता ज्ञान सुध्यान।’
■ पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज अपने लेख ‘सत्संगति जीवन में अनिवार्य क्यों’ में लिखते हैं- ‘परमेश्वर भी भक्तों-संतों के हाथों बिक चुका है। यदि कोई अन्य खरीदना चाहे तो उसे भक्त-संत की शरण में जाकर निवेदन करना होगा। उन्हीं से मिलेगा प्रभु प्रेम, ज्ञान एवं प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना का ढंग ।’
■ इसी सन्दर्भ में पूज्यश्री स्वामी जी महाराज से ‘संत’ की परिभाषा समझ लेते हैं-
कारण वेश न सन्त का, पन्थ नहीं पहचान। रहे रमा हरि भजन में, वही सन्त जन जान ।
[भक्ति-प्रकाश]
इसका सटीक उदाहरण है- हमारे पूज्यश्री प्रेमजी महाराज जिन्होंने सर्विस में रहते हुए, अपने सभी कर्तव्यों का वहन करते हुए, भक्तिमय कर्मयोगी संत/गुरु की भूमिका निभाकर अनगिनत साधकों को नाम-दीक्षा देकर कृतार्थ किया।
नाम-दीक्षा हेतु अधिकृत कौन ?
जिसे स्वयं ईश्वर-कृपा प्रसाद प्राप्त है, जो स्वयं जाग्रत है, चैतन्य है, अनुभवी है तथा साधन-सम्पन्न है। उसे अपनी योग्यता सिद्ध करने तथा राम काज करने के लिये किसी संस्था से प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की/अधिकृत होने की आवश्यकता नहीं। उसे अधिकृत करने के लिए एक ‘अनन्य भक्त, गुरुमुखी, निडर, निर्भीक, आत्मज्ञानी, तत्वदर्शी, वरिष्ठ साधक’ तथा पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज द्वारा संस्थापित ‘राम-सेवक संघ’ के सदस्यों की सहमति ही पर्याप्त है।
परमेश्वर ने जो काम जिससे करवाना है, कोई छीन नहीं सकता, उसी से करवायेगा। रही दीक्षा देने की विधि की बात और अधिकार प्राप्त करने की बात, भोले भैय्या, यह सब मांगने से नहीं मिला करता। वह तो गुरुदेव की अकारण कृपा-प्रसाद रूप सहज प्राप्त होता है। यह केवल महाराज की परमेच्छा पर निर्भर करता है।
क्रमशः …
-एक वरिष्ठ साधक
उपरोक्त दिये गये सभी तथ्य पूज्यश्री स्वामी जी महाराज के सद्ग्रंथों तथा पूज्यश्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज के पत्रों, लेखों के साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत किये गये हैं। इस संदर्भ में यदि किसी का कोई भी प्रश्न हो तो वे इस मोबाइल नम्बर 75095 57000 पर Whatsapp मैसेज करके अथवा ग्वालियर आकर जानकारी ले सकते हैं।
प्रेषक : श्रीराम शरणम्, रामसेवक संघ, ग्वालियर