व्यास पूर्णिमा-विक्रम सम्वत् 2080

Shree Ram Sharnam Gwalior

श्री राम शरणम्

राम सेवक संघ, ग्वालियर

पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज का आध्यात्मिक परिचय

(जन्म – चैत्र पूर्णिमा सम्वत् 1925 तथा महाप्रयाण 13 नवम्बर, सन् 1960)

परम संत प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज 19वीं सदी के एक शान्त, दान्त, सिद्ध, उच्च कोटि के महान सन्त थे। श्रीराम शरणम् के संस्थापक एवं अमृतवाणी-सत्संग के प्रवर्तक, एक सच्चे अनुभवी पहुंचे हुए पूर्ण सतगुरु एवं महान योगी थे।

पूज्यपाद एक विलक्षण एवं अद्वितीय प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व के धनी थे, जिनका सानिध्य व सम्पर्क प्राप्त कर हम धन्य हुए हैं और परम सौभाग्यशाली बने हैं। प्राचीन सन्त परम्परा में अध्यात्म – विद्या की सरलतम व श्रेष्ठतम अनुभूत राम नाम की साधना प्रणाली में योगदान करने वाले वर्तमान के वे महान सत्पुरुष थे। श्री स्वामी जी ने प्रभु कृपा से प्राप्त ‘राम’ महामंत्र को त्रितापों से तप्त मानवों में – सम्प्रदाय, जातिभेद तथा मतमतान्तर की संकुचित सीमा को अस्वीकार कर मानव मात्र के प्रति करुणामय होकर, इस बीजमंत्र का प्रसाद बांटा और अपनी स्थिति अनुसार सबने लाभ प्राप्त किया।

नाम-दीक्षा पद्धति

श्री स्वामी जी द्वारा प्रदत्त नाम दीक्षा एक रहस्यवाद है, जिसमें स्वामी जी अपनी संकल्प-शक्ति से साधक के अन्तःकरण में ‘राम-नाम’ एक जाग्रत चैतन्य मंत्र को स्थापित करते थे। जिस प्रकार बीजारोपण एक विशेष प्रकार से तैयार की हुई भूमि में किया जाता है और उसके उपरान्त जब देखभाल की जाती है तभी वह अंकुरित होता है और कालान्तर में वृक्ष बनता है। इसी प्रकार श्री स्वामी जी के अनुसार जो मार्ग दिखाने वाला होता है, उसका कार्य बीज बोना है। साधक का कर्तव्य है, सुदृढ़ निश्चय के साथ सतत् साधनारत रहना, किन्तु जिस प्रकार अच्छा बीज उल्टा-सीधा कैसा भी भूमि में डाल दिया जाये अवश्यमेव अंकुरित होता है। उसी प्रकार सिद्ध जाग्रत संतों से मिला नाम (मंत्र) अवश्य ही अपना रंग दिखाता है। साधक के आचार-विचार व व्यवहार के परिवर्तन से इसकी अनुभूति की जा सकती है।

साधना- सत्संग

श्री स्वामी जी ने दीक्षित साधकों की आध्यात्मिक उन्नति का विचार करके साधना – सत्संग शिविर लगाने आरंभ किये। जहाँ साधक कुछ समय के लिए सारे सांसारिक बंधनों से हटकर साधना करें, भजन करने का ढंग सीखें, मेहनत करें, सफाई से रहना सीखें। उनके अनुसार साधक का मकान, मंदिर जैसा स्वच्छ होना चाहिये। साधक चुस्त हो, उसका आहार अल्प व सादा हो। इसे वह सत्संग के अवसर पर व्यवहार में लाये और बाद में जीवन में उतारे, . जिससे उसकी उन्नति हो और वह सामान्य जन – समाज से ऊँचा उठकर दूसरों को भी उन्नत करने में सामर्थ्यवान बने।

श्री स्वामी जी महाराज ने अपने सत्संग कार्य का यह उद्देश्य निर्धारित किया है –

‘वृद्धि – आस्तिक भाव की, शुभ मंगल संचार ।
अभ्युदय सद्धर्म का, राम नाम विस्तार ॥’

जीवन में समुन्नति के लिये निष्काम भाव से सभी कर्त्तव्य कर्म करते हुए, आत्म-ज्ञान प्राप्त करने हेतु साधना – पथ पर अग्रसर होते जाना है।

साधना-शैली

पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की साधना-शैली अति सरल, सहज व शीघ्र लाभ करने वाली है। ध्यान, सिमरन, सत्संग, स्वाध्याय एवं सेवा – ये उनकी उपासना पद्धति के प्रमुख अंग हैं। श्री स्वामी जी ने कोई मत या सम्प्रदाय नहीं बनाया, न ही गुरु – पूजा चलाई। वे गुरु को भगवान नहीं मानते थे।

ग्वालियर आगमन

‘देव – दया जब होनी चाहे, सहज से सब सुयोग बनाये । संत सुघड़ जिसको मिल जाते, पुण्य उदय उसके हो आते ॥’

पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज 1 नवम्बर, 1948 को ग्वालियर पधारे तथा 7 दिन तक श्री देवेन्द्र सिंह बेरी जी के यहाँ ठहरे और तभी से ग्वालियर के साधकों का भाग्योदय हुआ। ग्वालियर में पहला पंचरात्रि साधना सत्संग 1950 में केशरबाग में लगाया गया था।

सद्ग्रंथ :

पूज्यपाद श्री स्वामी जी ने अनेक ग्रंथों की रचना की है। ये श्री स्वामी जी महाराज के अद्भुत एवं कल्याणकारी ग्रंथ हैं, जो सरल व शुद्ध हिन्दी भाषा में हैं । ये लिखे नहीं हैं, लिखाये गये हैं। जैसे तुलसीकृत रामायण अवतरित ग्रंथ है उसी प्रकार श्री स्वामी जी की रचनायें भी अवतरित हैं। ‘इनका भावना से स्वाध्याय करने का स्वभाव बनाना चाहिये । ग्रंथों का पाठ मंगलमय होता है। जिनके घरों में स्वाध्याय होता है, उनके यहाँ संतान बड़े शुद्ध संस्कारों वाली, भक्त, मनस्वी और वीर होगी।’

‘भक्ति – प्रकाश’ श्री स्वामी जी का मौलिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ श्री स्वामी जी ने साधकों के आध्यात्मिक उत्थान के लिये बड़े ही गहन विषयों को बहुत ही सरल ढंग से पद्य-रूप में गाने योग्य पदों में एवं कथाओं के रूप में रचकर जन-मानस के लिए सुलभ कराया है जिसके अध्ययन से मानव को भक्ति-धर्म का अलभ्य लाभ प्राप्त होता है और मानव जीवन आस्तिक भावों से परिपूर्ण होकर सरस व सुन्दर बनता है। इसमें जीवन जीने की कला का सम्पूर्ण निरूपण किया गया है।

सिद्ध ग्रंथ-

‘अमृतवाणी’ पतित पावन राम नाम की महिमा से मंडित एक अद्वितीय एवं विलक्षण लघु ग्रंथ है। इस पुस्तक में तो श्री स्वामी जी ने गागर में सागर भर दिया है। यह उनकी अवतरित वाणी है। आजकल अनेक घरों में इसका पाठ किया जा रहा है, जिससे पाठक को आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव होता है, साथ ही कष्ट निवारण भी होते हैं। इसी प्रकार आपके सभी ग्रंथ अपनी अद्वितीय विशेषतायें संजोये हुए हैं। हुए

श्री स्वामी जी 13 नवम्बर, सन् 1960 को लगभग 100 वर्ष की आयु में अपना भौतिक चोला छोड़कर परम धाम सिधार गये।

पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के

परम सेवक, परम भक्त एवं एक दिव्य मूर्ति श्री प्रेम जी महाराज

(जन्म- 2 अक्टूबर, 1920 तथा महाप्रयाण 29 जुलाई, 1993)

परम पूज्य प्रातः स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परम भक्त एवं विनम्र सेवक पूजनीय श्री प्रेम जी महाराज बने। आप मन, वचन, कर्म से गुरुदेव की प्रतिमूर्ति थे। आपने स्वामी जी की विचारधारा को ज्यों का त्यों विशुद्ध बनाये रखा। सर्वथा श्री स्वामी जी महाराज को ही आगे रखा, अपने को सदैव पीछे ही रखकर सेवक भाव बनाये रखा। आप आजीवन ब्रह्मचारी रहे।

आप वाटर एंड पॉवर कमीशन, नई दिल्ली कार्यालय में उच्च पद पर सेवारत थे। सर्विस करने के साथ-साथ श्री स्वामी जी के मिशन को आगे बढ़ाते रहे तथा जनकल्याणार्थ तन-मन-धन से सेवा करते रहे। आप आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न थे, इसलिए आपके द्वारा की गयी प्रार्थना सार्थक होती थी।

आप अपने आवागमन एवं भोजन का पूर्ण व्यय स्वयं वहन किया करते थे, किसी से कोई भेंट स्वीकार नहीं करते थे।

आपकी कथनी-करनी एक थी, चुप रह कर व कम बोलकर, साधकों को अपने जीवन एवं कार्यशैली से समझा देते थे। आप संकल्प-शक्ति के धनी थे। हजारों साधकों ने आपकी कृपा का अनुभव प्राप्त किया है। आपका मुखमण्डल इतना तेजस्वी था कि कोई भी आपसे दृष्टि नहीं मिला पाता था। 29 जुलाई, 1993 को आप भौतिक चोला त्यागकर परम धाम सिधार गये।

श्रीरामशरणम् ग्वालियर का उद्घाटन

ग्वालियर के श्रीरामशरणम् – श्री माधव सत्संग आश्रम के भव्य, सुन्दर एवं सुसज्जित भवन का मंगल उद्घाटन रविवार दिनांक 8 अक्टूबर, 1972 (अश्विन शुक्ल नवरात्रि प्रतिप्रदा विक्रम संवत् 2029) के दिन पूज्य श्री प्रेम जी महाराज के कर- कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। मंगल उद्घाटन के शुभ दिन 8 अक्टूबर, 1972 को पूज्य श्री प्रेम जी महाराज अखण्ड जाप के कक्ष से ज्योति लेकर राम धुन गाते हुए मुख्य द्वार पर पधारे। वहाँ से ‘मंगल नाम जय जय राम’ धुन गाते हुए शुभ प्रवेश किया तथा श्री अधिष्ठान जी के समक्ष ज्योति की स्थापना की। इसके उपरान्त उद्घाटन की आगे की प्रक्रिया पूर्ण की गई।

इस प्रकार ग्वालियर श्रीरामशरणम् का मंगल उद्घाटन सम्पन्न हुआ।

पूज्य श्री प्रेम जी महाराज का शुभ संदेश

‘परमेश्वर के नाम का आराधन करते समय अपने-आपको उसी की शरण में अर्पित मानना चाहिए। जब श्रीराम दरबार में पहुँच गये फिर सांसारिक बातों के लिए व्याकुल होना तो श्रीराम कृपा की अवहेलना करना समझना ही उचित है। जिस प्रकार हमारे लिए शुभ होता है, उसी हालत में भगवान हमें रखता है, यह भी दृढ़ निश्चय होना उचित है।’

– पूज्य श्री प्रेम जी महाराज

परम पूज्य श्री प्रेमजी महाराज के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी

परम श्रद्धेय (डॉ.) श्री विश्वामित्र जी महाराज

(जन्म 15 मार्च, 1940 तथा महाप्रयाण 02 जुलाई, 2012)

परम पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी पूज्य श्री प्रेम जी महाराज के ब्रह्मलीन होने के पश्चात् उनके मिशन को परम श्रद्धेय डॉ. श्री विश्वामित्र जी महाराज ने संभाला। परम पूजनीय श्री प्रेम जी महाराज के अन्तरंग शिष्य डॉ. श्री विश्वामित्र जी महाराज ने ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साईसेज़, (AIIMS) नई दिल्ली में 22 वर्षों तक गौरवशाली सेवा की आप एशिया के अकेले “ऑक्यूलर माइक्रोबायोलोजिस्ट” के रूप में विख्यात हुये, किन्तु भौतिक जीवन की निःस्सारता एवं प्रभु- प्रेम का आकर्षण आपको संसार से बांध नहीं पाया।

ईश-प्राप्ति की चाह ने आपको ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए त्याग एवं वैराग्य वृत्ति की ओर प्रवृत्त किया और आपने सब कुछ त्याग कर स्वेच्छा से सेवा-निवृत्ति ले ली। तत्पश्चात् मनाली (हिमाचल प्रदेश) में जाकर एकान्तवास करके आप साढ़े पाँच वर्ष तक साधनारत रहे, जहाँ आपकी आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्णरूपेण विकास हुआ।

इस अवधि में आपको अनेक आध्यात्मिक उपलब्धियाँ एवं अनुभूतियाँ प्राप्त हुई। इस प्रकार आप एक उच्चकोटि के विद्वान, प्रखर वक्ता, महान् कर्मयोगी, अनन्य रामभक्त श्रेष्ठतम एवं आध्यात्मिक शक्ति के पुंज बनकर उभरे। आपकी वाणी में विलक्षण तेज, ओज एवं सत्य का प्रभाव था। आपके प्रवचन एवं भजन-कीर्तन गायन से सभी श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे। आपके तप का प्रभाव आपके तेजोमय मुखमण्डल से स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता था। पूज्य श्री प्रेम जी महाराज की भाँति आप भी अपने भोजन एवं आवागमन का पूर्ण व्यय स्वयं वहन करते थे।

पूज्य श्री प्रेम जी महाराज अपने जीवन के अंतिम 10 वर्षों में सूक्ष्म रूप से डॉ. श्री विश्वामित्र जी महाराज को प्रेरित करते रहे और संकल्प बल से अपनी आध्यात्मिक शक्तियाँ उन्हें प्रदान कर गये । सन् 1993 में परम पूज्य श्री प्रेम जी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर आपको सादर एवं साग्रह मनाली से नई दिल्ली लाकर विधिवत् उत्तराधिकारी घोषित किया गया। इस प्रकार आप संत परंपरा के अनुसार श्री स्वामी जी महाराज की पावन पीठ के अधिकारी बने। तब से आप राम-नाम को जीवन का एक मात्र उद्देश्य बनाते हुए पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज द्वारा स्थापित आदर्श परम्पराओं का दृढ़तापूर्वक निर्वहन करते हुए अपने तेजोमयी प्रभा-मण्डल से समूचे भारत एवं विश्व को प्रकाशित करते रहे। आपके दर्शन मात्र से ही सभी जन आनन्दित एवं प्रफुल्लित हो जाते थे।

ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे आप !

आपने 02 जुलाई, 2012 को हरिद्वार में नीलधारा पर ध्यानावस्था में बैठे हुए ही अपना भौतिक चोला त्याग दिया।

पूज्य श्री महाराज जी का प्रथम ग्वालियर आगमन

पूज्य श्री महाराज जी 13 जनवरी, 1994 में प्रथम बार श्री राम शरणम्, ग्वालियर पधारे। इस शुभावसर पर असंख्य साधक श्री महाराज जी के लिए आयोजित किये गए विशेष सत्संग कार्यक्रम में सम्मिलित हुए तथा पूज्य श्री महाराज जी के प्रवचन का लाभ प्राप्त किया। उसके बाद सन् 2012 तक पूज्य श्री महाराज जी प्रत्येक वर्ष ग्वालियर पधारे।

पूज्य (डॉ.) श्री विश्वामित्र जी महाराज का व्यास-पूर्णिमा पर शुभ संदेश-

“गुरु में गुरुता का पूजन का दिन है आज, शरीर का नहीं, अच्छा साधक शरीर को नहीं पूजता । ”