नाम – दीक्षा
(नाम योग-ध्यान योग-सहज योग-राजयोग )
अध्यात्म जगत में ‘नाम दीक्षा’ एक सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में योग्य गुरु द्वारा शिष्य में आध्यात्मिक शक्ति का संचार कराया जाता है। अनुभव से इसका महत्व समझ में आता है। संत परम्परा के अनुसार हमारे सत्संग में नाम-दीक्षा का देना व लेना अर्थात् गुरु-मंत्र को धारण करना एक रहस्यवाद है। इस विधि में ‘राम-नाम’ एक जाग्रत, चैतन्य तारक मंत्र होता है, जो साधक के अन्तःकरण में किसी अनुभवी साधन-सम्पन्न गुरु द्वारा अपनी संकल्प-शक्ति से विधिपूर्वक स्थापित किया जाता है। इसके अन्तर्गत साधक को ध्यान व जाप आदि की उपासना विधि समझायी जाती है। इस सम्पूर्ण विधि को दीक्षा ग्रहण करना, नाम लेना, मंत्र धारण करना अथवा आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त करना कहते हैं ।
- ‘धर्म-कर्म के साधन में, भक्ति-धर्म में (अध्यात्म में) प्रवेश करते समय जो व्रत-नियम धारण करने की क्रिया की जाती है, उसका नाम ‘दीक्षा’ है ।’
(बृहदारण्यक उपनिषद्)
- जैसे मंदिर में मूर्ति की स्थापना करके प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है वैसे ही अन्तःकरण में नाम-मूर्ति की स्थापना करना ‘दीक्षा’ है ।
- जिस प्रकार भूमि में बीजारोपण किया जाता है फिर सींचते रहने पर वह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होने लगता है, उसी प्रकार अन्तःकरण की भूमि में नाम का बीजारोपण करना ही ‘दीक्षा’ है ।
- जैसे दूध में से मक्खन निकालने के लिए सही विधि जानना आवश्यक है, इसी प्रकार आत्मज्ञान हेतु साधन-विधि का ज्ञान होना ही ‘दीक्षा’ है।
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की विशुद्ध नाम – दीक्षा पद्धति
आध्यात्मिक जगत् में नाम – दीक्षा एक अत्यन्त महत्वपूर्ण, पवित्र तथा सूक्ष्म वैज्ञानिक प्रक्रिया है । नाम-दीक्षा की इस प्रक्रिया में योग्य, अनुभवी मनुष्य, गुरु अथवा संत द्वारा शिष्य में आध्यात्मिक शक्ति का संचार कराया जाता है। संत परंपरा के अनुसार हमारे सत्संग में नाम-दीक्षा का देना व लेना अर्थात् गुरु मंत्र को धारण करना एक रहस्यवाद है। इस विधि में राम-नाम एक जाग्रत, चैतन्य तथा तारक मंत्र होता है, जो साधक के अन्तःकरण में अनुभवी संत, साधन- सम्पन्न व्यक्ति द्वारा अपनी संकल्प शक्ति से विधिपूर्वक स्थापित किया जाता है, साथ ही ध्यान व जाप करने की उपासना विधि भी समझायी जाती है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को दीक्षा ग्रहण करना, नाम लेना, मंत्र धारण करना अथवा आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त करना कहते हैं। पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज के अनुसार अध्यात्म जगत् में नाम-दीक्षा तीन प्रकार से दी जाती है – शब्द, स्पर्श व दृष्टि द्वारा ।
पूज्य श्री डॉ. विश्वामित्र जी महाराज का कथन है- ‘परम कल्याण की प्राप्ति के लिए परमात्मा की दया, गुरु की दया एवं आत्म शक्ति तीनों अपेक्षित हैं (अमृतवाणी व्याख्या पृष्ठ क्र. 9 ) । जैसे मंदिर में मूर्ति की स्थापना करके प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, भूमि में बीजारोपण किया जाता है फिर सींचते रहने पर यह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होने लगता है, उसी प्रकार अन्तःकरण की भूमि में नाम का बीजारोपण किसी सुघड़ संत, योग्य, अनुभवी मनुष्य अथवा साधन-सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किये जाने पर ही मंत्र योग का विकास क्रमशः होता जाता है । इसे ही दीक्षा कहते हैं । यह सम्पूर्ण प्रक्रिया एक जीवित देहधारी व्यक्ति ही पूर्ण कर सकता है।
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज द्वारा अपने जीवनकाल में पाँच साधकों को ( पूज्य श्री प्रेम जी महाराज सहित जिनमें तीन महिलायें भी शामिल थीं) नाम – दीक्षा देने का अधिकार दिया था। इसके अतिरिक्त सन् 1950 में कुछ अन्य पाँच-सात साधकों को भी ( जिनमें ग्वालियर से श्री देवेन्द्र सिंह बेरी व हिमाचल के प्रो. श्यामसुन्दर जी शामिल थे) को प्रचारक पद देकर नाम-दीक्षा देने का अधिकार भी दिया था (प्रवचन पीयूष पृष्ठ – 506 बिन्दु – 44 ) । इस प्रकार श्री स्वामी जी ने अपने जीवनकाल में ही प्रचारक पद देकर राम-नाम के प्रचार-प्रसार कार्य को आगे जारी रखा । श्री स्वामी जी महाराज के पश्चात् पूज्य श्री प्रेम जी महाराज एवं पूज्य श्री डॉ. विश्वामित्र जी महाराज दीक्षा देते समय श्री स्वामी जी महाराज को ही आगे रखते थे और सभी साधकों से तीन बार यह वचन लेते थे ‘आपके गुरु श्री स्वामी सत्यानंद जी महाराज हैं, किसी अन्य को बीच में न लावें ।’
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की नाम-दीक्षा की विशुद्ध पद्धति को जीवंत रखने हेतु ग्वालियर में रामसेवक संघ तथा श्री माधव सत्संग आश्रम की कमेटी द्वारा सुश्री डॉ. ज्योत्सना जी को प्रचारक पद देकर उन्हें नाम – दीक्षा देने का अधिकार दिया गया है और प्रत्येक माह की पूर्णिमा को नाम – दीक्षा दी जा रही है ।
पूज्य श्री स्वामी जी महाराज द्वारा उनके सद्ग्रंथों में यह स्पष्ट कथन किया गया है कि दीक्षा में जीवंत शब्द होना चाहिए, ऐसी दीक्षा जीवित व्यक्ति द्वारा ही दी जा सकती है। श्री स्वामी जी महाराज का कथन है-
- जो शाखा मरी हुई हो वह नहीं उगती, जीवित शाखा ही लगती है और फलीभूत होती है। (प्रवचन पीयूष पृष्ठ – 463)
- जैसे शाखा जीवित लागे, ऐसे जन गुरुवर से जागे । ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ – 243)
- गुरु मुख से जब ही मिले, शब्द नाम अनमोल । वृत्ति ध्यान समाधि में, होकर रहे अडोल ।। ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ – 94)
- गुरु मुख से ले शब्द को, करिये नित्य अभ्यास । अचल धारणा धारिये, जहाँ शक्ति का वास ।। ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ-167)
- पलड़े सांसों सांस के, दोनों करके ठीक | गुरु मुख से ले शब्द को, हो जा सदा निर्भीक ।। ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ-179)
- गुरु से दीक्षा लीजिये, मंगलमय ले नाम । बाना रखना पन्थ का जान तभी बिन काम । ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ-182)
- मंत्र धारणा यों कर, विधि से लेकर नाम । ( अमृतवाणी पृष्ठ – 2)
- यदि किसी अनुभवी मनुष्य से परमेश्वर का मंगलमय नाम लिया जाये तो उससे अन्तरात्मा जग जाता है । ( भक्ति प्रकाश पृष्ठ – 419)
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की विशुद्ध नाम – दीक्षा पद्धति में हमारे गुरुजन दीक्षा देते समय साधक की आत्मा की तार परमात्मा से जोड़ते थे अतः यह सब कुछ प्रत्यक्ष व्यक्ति द्वारा ही किया जा सकता है । गुरुजन दीक्षा देने के पूर्व मन में एक विशेष मंत्र बोलकर ही पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज का आव्हान किया करते थे। कोई जीवित (सजीव) अनुभवी व्यक्ति ही अपने महान् सद्गुरु पूज्यपाद श्री स्वामी जी का आव्हान कर उन्हें बुला सकता है। निर्जीव यंत्र द्वारा प्रसारित रिकॉर्डेड वीडियो महान् पूज्यपाद श्री स्वामी जी को कैसे आव्हान कर उन्हें बुलायेगा और कौन आत्मा का तार परमात्मा से जोड़ेगा ?
नाम-दीक्षा लेना क्यों आवश्यक है?
- परम-पद की प्राप्ति के लिये ।
- परमात्म-साक्षात्कार के लिये ।
- आत्म जागृति एवं आत्म-ज्ञान के लिये ।
- आत्म-कल्याण के लिये ।
- आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिये ।
- For Peace of Mind.
- उपरोक्त ‘लक्ष्य’ की प्राप्ति के लिये विधिपूर्वक ‘नाम दीक्षा’ ग्रहण करना आवश्यक है।
नाम-दीक्षा के लिये गुरु ( मार्गदर्शक) की आवश्यकता
- श्रीमद्भगवद्गीता के (श्लोक – 4/34) में श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! तू आत्म-ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो तत्व ज्ञानी, अनुभवी, संत-महात्माओं के समीप जाकर विनीत भाव से उन्हें नमस्कार कर तथा सेवा भाव से ज्ञान प्राप्त करने की प्रार्थना कर अर्थात् पात्र बनकर उनकी शरण में जा, फिर वे तुझे सच्चा ज्ञान देंगे, जिससे तेरे जीवन का निश्चित रूप से निस्तार होगा।’
- कठोपनिषद् (वल्ली – 3/14) में ऋषि कहता है ‘उस आत्मा के जानने के लिए उठो, जागो और श्रेष्ठजनों को पाकर उनके सत्संग से भगवद्भक्ति को समझो अर्थात् श्रेष्ठजनों (अनुभवी संत) की शरण में जाकर अपने आत्म-कल्याण का मार्ग प्राप्त करो।’
- पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने भी अपने उपदेशों में यही निर्देशित किया है-
“आत्मा का कल्याण जो, चाहे सहित विवेक ।
सीखे सुगुणी संत से, यही योग की टेक ॥”
(भक्ति – प्रकाश)
- संसार में पग-पग पर मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, चाहे हम सांसारिक जीवन में रहें या पारमार्थिक जीवन में, बिना मार्गदर्शक के हम दोनों जीवन में भली-भाँति सफल नहीं हो सकेंगे। जैसे लौकिक विद्या के क्षेत्र में गुरु (मार्गदर्शक) की आवश्यकता होती है उसी प्रकार ब्रह्मविद्या (अध्यात्म विद्या) के क्षेत्र में भी गुरु की परम आवश्यकता है।
- अध्यात्म-विद्या के इस मार्ग पर चलकर कोई बिना गुरु के अपने आप परम-पद की प्राप्ति नहीं कर पाता है। इस आत्म-विद्या को सीखने की आवश्यकता होती है। अतः किसी सुयोग्य गुरु (मार्गदर्शक) की आवश्यकता है। जैसे अन्य भौतिक विधाओं का ज्ञान उस विद्या के विशेषज्ञ से ही प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार अध्यात्म-विधा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी किसी अनुभवी विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है जो एक अनुभवी सज्जन, संत, ज्ञानी, महात्मा ही हो सकता है अर्थात् अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने हेतु सद्गुरु की आवश्यकता होती है।
- जैसे हम शारीरिक रोग के निवारण हेतु वैद्य या डॉक्टर के पास । जाते हैं, उसी प्रकार हमें मानस रोग के निवारण तथा आध्यात्मिक उन्नति हेतु आध्यात्मिक गुरु (Spiritual master) के पास जाना होता है।
- यह सभी जानते हैं कि नाव में बैठकर नदी को पार किया जा सकता है। कोई नाव में बैठ जाए तो क्या वह अपने आप पार जा सकेगा ? हवा तथा बहाव के साथ वह कुछ दूर तो बहेगी पर बीच में जाकर डूब भी सकती है, किन्तु पार नहीं जा सकेगी। पार जाने के लिए नाव का खेना आना (जानना) आवश्यक है अर्थात् उसके लिए कुशल नाविक चाहिए और चप्पू भी, तभी पार जाया जा सकता है। इसी प्रकार भव-सागर से पार जाने के लिए नाविक रूपी गुरु की आवश्यकता होती है और चप्पू-रूपी मंत्र की भी। अतः दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् ही संसार-रूपी सागर से निस्तार पाया जा सकता है।
- प्रत्येक मानव, जीवन में सुख-शांति ही चाहता है दुःख कोई नहीं चाहता, किन्तु चाहते हुए भी सुख आता नहीं है, जबकि दुःख न चाहते हुए भी आ जाता है। अतः जीवन में सुख शांति तथा आनन्द की प्राप्ति के लिए कोई सही साधन (पथ) की आवश्यकता है, जो किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक के सानिध्य में ही प्राप्त किया जा सकता है। परम-पद की प्राप्ति के लिए, आत्म-कल्याण के लिए एवं परमात्म-साक्षात्कार के लिए गुरु परम आवश्यक है।
अध्यात्म गुरु (पथ-प्रदर्शक ) की विशेषतायें
- गुरु ज्ञान है, परम्परा है, पथ-प्रदर्शक है, समाधान है और एक तत्व है, शरीर नहीं।
- वह वेद-शास्त्र का ज्ञाता हो । गीता-ज्ञान व रामायण से परिपूर्ण हो ।
- जिसे आत्म ज्ञान का अनुभव हो, जो अध्यात्म-विद्या का विशेषज्ञ हो, जिसकी अन्तःशक्ति जाग्रत हो। क्योंकि जो स्वयं जाग्रत है वही दूसरों को जगा सकता है। प्रज्ज्वलित दीपक से ही अनेक दीपक प्रज्ज्वलित किए जा सकते हैं।
- वह ब्रह्मनिष्ठ, ज्ञानी एवं ध्यानी हो ।
- स्वार्थ-रहित, लोभ-लालच से रहित, सत्यवादी एवं चरित्रवान हो । क्रोधी न हो ।
- पराई पीड़ा को जानने वाला, परोपकारी एवं निर् अभिमानी हो ।
- नाम सुनौका से जन-तारक हो ।
- परनारी माता के समान समझे और परधन पर नीयत न रखे।
- जीवन में यम-नियम का पालक हो ।
- प्रथम गुरु माँ है, दूसरा पिता । उपवीत आदि कर्म कराने वाला कुल – गुरु होता है, विद्यादान करने वाला भी गुरु होता है। ये सब धार्मिक एवं लौकिक गुरु हैं। इन सबसे न्यारा अध्यात्म गुरु होता है। जो परमात्मा का नाम तथा भक्ति प्रदान करता है। आत्मा का तार परमात्मा से जोड़ता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन कराता है। जो अज्ञान अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश कराता है । जो सुरति शब्द का मेल कराता है।
- जिसे नाम (दीक्षा) देने का अधिकार हो, नाम देने की शक्ति हो एवं नाम देने की विधि का ज्ञाता हो ।
सुगुरु से यहाँ समझिए, ज्ञानी अनुभववान् ।
बोधक धर्म सुकर्म का, दाता ज्ञान सुध्यान।।
ज्ञान ध्यान में जो रमा, पूर्ण योगी जोय ।
जप सिमरन से सिद्ध जो, मानिए सुगुरु सोय ।।
( भक्ति – प्रकाश)
दीक्षा देते समय साधन–सम्पन्न (सद्गुरु) की दृष्टि में साधक के आत्म-भाव को जाग्रत किया जाता है। उसकी प्रसुप्त कुण्डलिनी-शक्ति को जगाया जाता है । उसकी अविद्या की ग्रंथि को भेदन किया जाता है तथा उस पर पड़े माया के आवरण को उठाकर उसकी चेतना को चैतन्य किया जाता है क्योंकि गुरु द्वारा प्रदत्त ‘राम-मंत्र’ परम पावन है, महाशक्ति का कोष तथा केन्द्र है। यह रहस्यमय पथ परम विश्वास का पथ है तथा परम प्रभु की कृपा का मार्ग है । (-प्रार्थना और उसका प्रभाव )
एक अनुभवी, सच्चे, योग्य तथा साधन-सम्पन्न व्यक्ति से विधिपूर्वक जीवंत नाम दीक्षा लेने का विशेष लाभ
‘दीक्षा’ लेने पर हम उस अनुभवी सन्त से जुड़ जाते हैं। उनका संकल्प, आत्म-बल हमारे साथ सहायक होता है। उनका आशीर्वाद तथा मार्गदर्शन हमें प्राप्त होता रहता है, चाहे वह संत (गुरु) समीपस्थ हों या दूरस्थ हों। हम उपासना करने लग जाते हैं क्योंकि हमने साधन करते रहने का वचन दिया होता है। अतः विधिपूर्वक उपासना होने लगती है।
- हमारी दीक्षा-पद्धति में दक्षिणा नहीं, बन्धन नहीं और कोई ठगाई नहीं ।
- हमारे सत्संग में गुरु पूजा नहीं, राम नाम द्वारा परमात्मा की उपासना होती है।
- हम परमात्मदेव का मानस पूजन करते हैं।
- यह तो होम्योपैथिक औषधि की तरह है । औषधि मात्रा में बहुत थोड़ी होती है लेकिन उसमें रोग निवारण की शक्ति अत्यधिक होती है। अतः थोड़ा करने पर भी बहुत लाभ मिलता है ।
- यह सहज है, सरल है, सुलभ है।
पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की संत-परम्परा के अनुसार, दीक्षा देने के अधिकारी श्री स्वामी जी महाराज के पश्चात् पूज्यश्री प्रेम जी महाराज हुए। तत्पश्चात् पूज्य श्री (डॉ.) विश्वामित्र जी महाराज से नाम-दीक्षा ग्रहण करके लाखों साधक लाभान्वित हुए। हमारे तीनों पूज्य गुरुजनों ने सदैव ही शास्त्रानुसार जीवंत शब्द द्वारा नाम – दीक्षा दी है।
वर्तमान में गुरुपद रिक्त होने के कारण पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की विशुद्ध नाम- दीक्षा पद्धति का पालन करते हुये राम सेवक संघ द्वारा सुश्री (डॉ.) ज्योत्सना दीदी को ‘ प्रचारक पद’ प्रदान कर नाम-दीक्षा देने हेतु विधिवत् अधिकृत किया गया है। ग्वालियर में पूज्यपाद श्री स्वामी जी महाराज की विशुद्ध दीक्षा पद्धति के अनुसार ही दीक्षा दी जा रही है।